________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२७) मन्दघर्षाश्रुरोगेऽक्षिण प्रयोज्यं घनदृषिके ॥
आर्ते पित्तकफासृग्भिारुतेन विशेषतः ॥९॥ मंदघर्षण और मंद अश्रु रोगोंसे संयुक्त और घनी डीढ अर्थात् नेत्रके मलसे संयुक्त नेत्रमें और पित्त, कफ, रक्त, वायु करके पीडित रोगीके विशेष करके अंजनको प्रयुक्त करना उचित है ॥९॥
लेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनमिति त्रिधा ॥
अञ्जनं लेखनं तत्र कषायाम्लपटूषणैः ॥ १०॥ लेखन, रोपण, दृष्टिप्रसादन इन भेदोंकरके अंजन तीन प्रकारका है तिन्होंमें कसैले, अम्ल, सलोने, मिरचआदि ऊषण औषधोंकरके लेखन अंजन बनता है ॥ १० ॥
रोपणं तिक्तकैर्द्रव्यैः स्वादुशीतैः प्रसादनम् ॥
दशाङ्गुला तनुर्मध्ये शलाका मुकुलानना ॥ ११ ॥ तिक्त औषधों करके रोपणअंजन बनता है, स्वादु और शीतल औषधोंकरके प्रसादन अंजन बनता है और दश अंगुलप्रमाणवाली और मध्यभागमें मिहीन और राजउडदके समान मुखबाली शलाई होनी चाहिये ॥ ११ ॥
प्रशस्ता लेखने ताम्री रोपणे काललोहजा॥ ____ अगुली च सुवर्णोत्था रूप्यजा च प्रसादने ॥१२॥
लेखन अंजनमें तांबाकी शलाई श्रेष्ट है रोपण अंजनमें काले शस्त्रकी शलाई अथवा अंगुली श्रेष्ठ है प्रसादन अंजनमें सेनाकी अथवा चांदीकी शलाई श्रेष्ठ है ॥ १२ ॥
पिण्डो रसक्रिया चूर्णस्त्रिधैवाञ्जनकल्पना॥
गुरौ मध्ये लघौ दोषे ताः क्रमेण प्रयोजयेत् ॥ १३॥ पिंड, रसक्रिया, चूर्ण ऐसे अंजनकी कल्पना ३ प्रकारकी हैं इन तीनोंको क्रमसे गुरु, मध्य . लघु दोपोंमें प्रयुक्त करै ॥ १३॥ .
हरेणुमात्रं पिण्डस्य वेल्लमात्रा रसक्रिया॥
तीक्ष्णस्य द्विगुणं तस्य मृदुनश्चूर्णितस्य च ॥ १४ ॥ तीक्ष्णद्रव्योंसे किये पिंडको मटरके समान प्रमाण है और कोमल द्रव्योंसे किये पिंडका दो मटरके समान प्रमाण है और रसक्रियाका वायविडंगके समान प्रमाण है ॥ १४ ॥
द्वे शलाके तु तीक्ष्णस्य तिस्रः स्युरितरस्य च ॥ निशि स्वप्नेन मध्याहे पानान्नोष्णगभस्तिभिः ॥ १५॥
For Private and Personal Use Only