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( २०६)
अष्टाङ्गहृदये. सब प्रकारके नेत्ररोगोंको आदिमें आश्चोतन अर्थात् परिषेक हित है । क्योंकि यह आश्चोतन रक्त, पानी. खाज, घर्षण, आंशू, दाहको निवारित करता है ॥ १ ॥
उष्णं वाते कफे कोष्णं तच्छीतं रक्तपित्तयोः॥
निवातस्थस्य वामेन पाणिनोन्मील्य लोचनम् ॥ २॥ वातमें गरम और कफमें कछुक गरम रक्त और पित्तमें शीतल ऐसे सेंक करे और वातरहित स्थानमें स्थित हुये मनुष्यके वामें हाथकरके नेत्रको खोल ॥ २॥
शुक्त्या प्रलम्बयान्येन पिचुवा कनीनिके ॥
दश द्वादश वा बिन्दुन् व्यङ्गलादवसेचयेत् ॥ ३॥ पीछे दाहिने हाथकरके सीपी, तूंबी, पिचुवति इन्होंके द्वारा, दश अथवा बारह बुंदोंको नेत्रमें दो अंगुल प्रमाणतक अवसचित करे ॥ ३ ॥
ततः प्रमृज्य मृदुना चैलेन कफवातयोः॥ - अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेन स्वेदयेन्मृदु ॥४॥ पीछे कोमल कपडे करके शोधे और कफवातमें कछुक गरम पानीसे भिगोयेहुये वस्त्रकरके कोमल पसीना देवै॥ ४ ॥
अत्युष्णतीक्ष्णं रुग्रागनाशायाक्षिसेचनम् ॥
अतिशीतं तु कुरुते निस्तोदस्तम्भवेदनाः॥५॥ अत्यंत गरम तीक्ष्ण सेंक पीडा, राग, दृष्टिके नाशके अर्थ कहा है और अत्यंत शीतल सेंक सूईके चमककी तरह पीडा, स्तंभ, शूलको करता है ॥५॥
कषायवर्त्मतां घर्ष कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु ॥ विकारवृद्धिमत्यल्पं संरम्भमपारस्रुतम् ॥६॥ अत्यंत किया सेक नेत्रके मार्गोका आपसमें मिलाप, घर्षण, कष्टकरके नेत्रका खुलना इन्होंको करता है और अत्यंत अल्प किया सेंक विकारकी वृद्धि, नेत्रसेचन नेत्रके क्षोभको करता है ॥६॥
गत्वा सन्धिशिरोघाणमुखस्रोतांसि भेषजम् ॥
ऊर्ध्वगान्नयने न्यस्तमपवर्त्तयते मलान् ॥७॥ नेत्रमें प्राप्त किया औषध नेत्रकी संधिके संबंधी स्रोत, शिरके संबंधी स्रोत मुखके संबंधी स्त्रोत इन्होंमें गमन करके पीछे ऊर्ध्वगत मलोंको दूर करता है ॥ ७ ॥
अथाञ्जनं शुद्धतनोर्नेत्रमात्राश्रये मले ॥
पक्वलिङ्गेऽल्पशोफातिकण्डूपैच्छिल्यलक्षिते ॥८॥ शुद्धशरीरवाले मनुष्यके नेत्रकी मात्रामें आश्रित और पक्क हुये चिह्नोसे संयुक्त और अल्प शोजा, अतिखाज, पिच्छलपना, इन्होंकरके लक्षित मलमें ॥ ८ ॥
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