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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमतम् । (२०५) आवक्त्रनासिकोक्लेदादशाष्टौ षट् चलादिषु ॥
मात्रासहस्राण्यऽरुजे त्वेकं स्कन्धादि मर्दयेत् ॥३०॥ जबतक मुख और नासिकाका झिराव होवे तबतक धारितरहै और वातजरोगमें दशहजार मात्राकालतक धार और पित्तजरोगमें आठहजार मात्राकालतक धारै और कफजरोगमें छह हजार मात्राकालतक धारै और रोगरहित मनुष्यके एक हजार मात्राकालतक धारै ॥ ३० ॥
मुक्तस्नेहस्य परमं सप्ताहं तस्य सेवनम् ॥
धारयेत्पूरणं कर्णे कर्णमूलं विमर्दयन् ॥ ३१॥ पीछे बस्तिको दूर करके तिस मनुष्यके कंधा, शिर, ग्रीवा, आदिको मर्दित करै और तिस स्नेहबस्तिका सेवन करनेको परम काल सात दिनोंतक है और कर्णके मूलको विशेषकरके मर्दित करताहुआ मनुष्य कर्णपूरणको धारै ॥ ३१॥
रुजः स्यान्मार्दवं यावन्मात्राशतमवेदने ॥ यावत्पर्येति हस्ताग्रं दक्षिणं जानुमण्डलम् ॥
निमेषोन्मेषकालेन समं मात्रा तु सा स्मृता ॥३२॥ . जबतक पीडाका कोमलपना होवे और पीडारहित मनुष्य कर्णपूरणको १०० मात्राकालतक धारै और दाहिने हाथका अग्रभाग जबतक जानुमंडल अर्थात् गोडाके मंडलको छुए और लौटे अथवा जितने कालमें नेत्र मिचते और खुलते हैं अर्थात् एक पलक लगता है उतने समयतकका नाम मात्रा है अथवा अपने घोटेके चारोंतर्फ स्पर्श होय इसप्रकार हाथको फेरकर चुटकी बजावे इतने कालकी एक मात्रा है॥ ३२ ॥ कचसदनसितत्वपिञ्जरत्वं परिस्फुटनं शिरसःसमीररोगान्॥ जयति जनयतीन्द्रियप्रसाद स्वरहनुमूर्द्धबलं च मूर्द्धतैलम् ॥ ३३ ॥
शिरमें दिया तेल बालोंकी शिथिलता, बालोंकी सफेदाई, बालोंका पिंजरपना, शिरका परिस्फु. टन; वातरोगको जीतता है और नेत्रआदि इंद्रियों में प्रसन्नताको और स्वर, ढोडी, शिरमें बलको उपजाता है ॥ ३३॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपीडतरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥ - त्रयोविंशोऽध्यायः।
-oceroorअथात आश्चोतनाञ्जनविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर आश्चोतनाञ्जनविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्चोतनं हितम् ॥ रुक्तोदकण्डघर्षा(दाहरोगनिबर्हणम् ॥ १॥
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