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( २०४ )
अष्टाङ्गहृदये
अभ्यङ्गसेकपिचवो बस्तिश्चेति चतुर्विधम् ॥ मूर्धतैलं बहुगुणं तद्विद्यादुत्तरोत्तरम् ॥ २३ ॥
अभ्यंग, सेक, पिचु अर्थात् तेलआदिमें भिगोया हुआ रूईका फोहा बस्ति इन भेदोंकर के शिरका तेल ४ प्रकारका है और इन चारोंमें उत्तरोत्तर क्रमकरके बलवान् जानना जैसे अभ्यंगसे ९ सेंक और सेंकसे पिचु ॥ २३॥
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तत्राभ्यङ्गः प्रयोक्तव्यो रौक्ष्यकंडमलादिषु ॥ अरूंषिकाशिरस्तोद दाहपाकव्रणेषु तु ॥ २४ ॥
तिन्होंमेंसे रूखापन, खाज, मलआदिरोग में अभ्यंगको योजित करे और अरूषिका नसी शिरका तोद, दाह, पाक व्रणमें परिषेकको प्रयुक्त करै ॥ २४ ॥
परिषेकः पिचुः केशशातस्फुटनधूपने ॥
नेत्रस्तम्भे च बस्तिस्तु प्रसुप्त्यर्दितजागरे ॥ २५॥
केशोंको दूर करना, स्फुटन, धूपन इन्होंमें और नेत्रके स्तंभमें पिचु रुई के फोयाको प्रयुक्त करे और प्रसुप्त, अर्दित, वात, जागना इन्होंमें ॥ २५ ॥
नासास्यशोषे तिमिरे शिरोरोगे च दारुणे ॥
विधिस्तस्य निषण्णस्य पीठे जानुसमे मृदौ ॥
२६ ॥
और नासाशोष, मुखशोष तिमिर, दारुणरूप शिरारोग इन्होंमें बस्तिको प्रयुक्त करे तिस शिरोवस्तिके विधानको कहते हैं कि गोडोंके समान और कोमलरूप पीटके बलसे बैठा हुआ || २६ || शुद्ध स्विन्नदेहस्य दिनांते गव्यमाहिषम् ॥
द्वादशाङ्गुलविस्तीर्णं चर्मपहं शिरः समम् ॥ २७ ॥
और मन आदिकर के शुद्ध और स्वेदकरके स्वेदित मनुष्यके दिनके अंतमें बारह अंगुल विस्तार से संयुक्त और शिरके समान और गायका अथवा भैंसके चर्मपट्टको ॥ २७॥ आकर्णबन्धनस्थानं ललाटे वस्त्रवेष्टिते ॥
चैलवेणिकया बद्धा माषकल्केन लेपयेत् ॥ २८ ॥
कानोंतक बाँधकर अर्थात् वस्त्रकरके वेष्टित माथे वस्त्रकी वेणीक के अच्छी तरह वांच पीछे उडदों के कल्ककरके लेपित करै ॥ २८ ॥
ततो यथाव्याधि श्रुतं स्नेहं कोष्णं निषेचयेत् ॥
ऊर्ध्वं केशभुवो यावद् द्व्यङ्गुलं धारयेच्च तम् ॥ २९ ॥
पीछे रोगके अनुसार पक और कछुक गरम स्नेहको केशों की भूमिके ऊपर जहां तक २ - अंगुलपरिमित हो तहांतक निषेचित करै पछेि तिस स्नेहको ॥ २९ ॥
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