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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२०१) शोधनस्तिक्तकसम्लपटूष्णै रोपणः पुनः॥,
कषायतिक्तकैस्तत्र स्नेहः क्षीरं मधूदकम् ॥३॥ तिक्त, कटु, अम्ल, नमक, उष्ण औषधोंकरके शोधनगंडूप बनता है और कषाय तथा तिक्त औषधोंकरके रोपणगंडूष बनताहै, तिन गडूपोंमें स्नेह, दूध, शहद, पानी ॥ ३ ॥
शुक्तं मयं रसो मूत्रं धान्याम्लं च यथायथम् ॥
कल्कैर्युक्तं विपकं वा यथास्पर्श प्रयोजयेत् ॥ ४॥ शुक्त, मदिरा, रस, गोमूत्र, कांजी इन्होंको कल्क आदिसे युक्त अथवा विपक हुयेको यथास्पर्शके योग्य प्रयुक्त करै ॥ ४ ॥
दन्तहर्षे दन्तचाले मुखरोगे च वातिके ॥
सुखोष्णमथ वा शीतं तिलकल्कोदकं हितम् ॥५॥ दंतहर्ष, दंतचाल, मुखरोग, वातजरोग इन्होंमें कछुक गरम अथवा शीतल तिलोंके कल्कका रानी हित है ॥५॥
गण्डूषधारणे नित्यं तैलं मांसरसोऽथ वा ॥
ऊषादाहान्विते पाके क्षते वागन्तुसम्भवे ॥६॥ गंडूषको धारनेमें नित्यप्रति तेल अथवा मांसका रस हित है और ऊषा तथा दाहसे अन्वित पाकमें तथा आगंतुसंज्ञक क्षतमें ॥ ६ ॥
विषक्षाराग्निदग्धे च सर्पिर्धाएं पयोऽथ वा ॥
वैशयं जनयत्यास्ये सन्दधाति मुखवणान् ॥ ७॥ और विषमें और खार तथा अग्निकरके दग्धमें घृत अथवा दूध हित और मुखमें विशदपनेको उपजाता है और मुखके व्रणोंको अच्छा करता है ॥ ७ ॥
दाहतृष्णाप्रशमनं मधुगंडूषधारणम् ॥
धान्याम्लमास्यवरस्यमलदौर्गन्ध्यनाशनम् ॥ ८॥ ' दाह और तृषाको शांत करता है ये शहदके गंडूषधारणके गुण हैं और कांजीके गंडूषसे मुखकी विरसता, मल, दुर्गधपनेका नाशहोता है ॥ ८ ॥
तदेवालवणं शीतं मुखशोषहरं परम् ॥
आशु क्षीराम्बुगण्डूषो भिनत्ति श्लेष्मणश्चयम् ॥९॥ और नमककरके रहित कांजी शीतल है, और अतिशयकरके मुखके शोषको हरती है और सज्जीआदिके खारके पानीसे धारण किया गंडूष तत्काल कफके संचयको भेदन करता हैं ॥९॥
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