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... अष्टाङ्गहृदयेवर्तिरगुष्ठवत्स्थूला यवमध्या यथा भवेत् ॥
छायाशुष्कां विगर्भा तां स्नेहाभ्यक्तां यथायथम् ॥ २० ॥ पीछे अंगुटेकीतरह स्थूल और मध्यभागकरके जवके समान बत्तीको छायामें सुखाके और तिसदर्भके मूलको निकास यथायोग्य तिस बत्तीको स्नेहसे आई करै ॥ २० ॥
धूमनेत्रापितां पातुमग्निप्लुष्टां प्रयोजयेत्॥ शरावसम्पुटच्छिद्रे नाडी न्यस्य दशाङ्गुलाम् ॥
अष्टाङ्गुलां वा वक्त्रण कासवान्धूममापिबेत् ॥२१॥ उसे अग्निसे प्रज्वलित कर, और धूएँकी नलीके अंगूठे प्रमाण छिद्रमें अर्पित कर बत्तीको . पान करनेके अर्थ प्रयुक्त करै और शकोराके संपुटयुग्मके छिद्रमें दशअंगुलप्रमाणवाली अथवा आठ अंगुल प्रमाणवाली नलीको स्थापितकर खांसीवाला मुखसे धूम पानकरै ।। २१ ॥ कासः श्वासः पीनसो विस्वरत्वं पूतिर्गन्धः पांडुता केशदोषः॥ कर्णास्याक्षित्रावकण्डुर्तिजाढ्यं तन्द्रा हिमा धूमपं न स्पृशन्ति॥२२॥
कास श्वास पीनस स्वरहीनता पूतिगन्ध पाण्डुता केशदोष कर्ण मुख नेत्रत्राव खुजली जडता तन्द्रा हिचकी धूमपान करनेवालेको नहीं होते ॥ २२ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपण्डितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटकिायां
सूत्रस्थाने एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
द्वाविंशतितमोऽध्यायः । अथातो गण्डूषादिविधिमध्याय व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर गण्डूषादिविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
चतुष्प्रकारो गण्डूषः स्निग्धः शमनशोधनौ ॥
रोपणश्च त्रयस्तत्र त्रिषु योज्याश्चलादिषु ॥ १॥ गंडूष अर्थात् कुले स्निग्ध, शमन, शोधन, रोपण इन भेदों करके ४ प्रकारके हैं तिन्होंमें आदिके तीन क्रमसे वात, पित्त, कफ इन्होंमें प्रयुक्त करनेयोग्य हैं ॥ १ ॥
अन्त्यो व्रणनः स्निग्धोऽत्र स्वाद्वम्लपटुसाधितैः ॥
स्नेहैः संशमनस्तिक्तकषायमधुरौषधैः ॥२॥ . और अंतका रोपणसंज्ञक गंडूष व्रणको नाशता है और स्वादु, अम्ल, नमक द्रव्योंके साधित स्नेहोंकरके स्निग्धांडूप बनता है और तिक्त,कपाय,मधुर,औषधोंकरके संशमनगंडूष बनता है ॥२॥
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