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(१८४)
अष्टाङ्गहृदयेकरे प्रतिआगमनमें परम काल एक मुहूर्त अर्थात् २ घडी है और दोघडीसे उपरांत काल मृत्युके अर्थ कहा है अर्थात् एक मुहूर्तमें बस्ति न आवै तो मरणावस्था प्राप्त होती है ॥ ४७॥
तत्रानुलोमिकं स्नेहक्षारसूत्राम्लकल्पितम् ॥
त्वरितं स्निग्धतीक्ष्णोष्णं बस्तिमन्यं प्रपीडयेत् ॥ ४८ ॥ जो एकमुहूर्तमें निरूहका आगमन नहीं होवे तो अनुलोमको करनेवाला और स्नेह, खार, गोमूत्र, अम्लसे कल्पित और स्निग्ध तक्ष्णि उष्ण और वेगसे संयुक्त अन्य वस्तिको प्रपीडित करै ॥ ४८॥
विदद्यात्फलवति वा स्वेदनत्रासनादि च ॥
स्वयमेव निवृत्ते तु द्वितीयो बस्तिारष्यते ॥४९॥ अथवा मैनफलकरके संयुक्त वर्तिको अथवा स्वेदन और त्रासन आदिको करै और विनापरिश्रम के आपही निरूहबस्तिकी निवृत्ति होजावे तो दूसरी बस्ति ॥ ४९ ॥
तृतीयोऽपि चतुर्थोऽपि यावद्वा सुनिरूढता ॥
विरिक्तवच्च योगादीन्विद्याद्योगे तु भोजयेत् ॥५०॥ और तिसरी और चौथी बस्ति अथवा जबतक अच्छीतरह निरूहपना होवे तबतक बस्तियोंको देता रहै और जुलाब लेनेवालेकी तरह योगआदिको जान और निरूहके सम्यक् योगमें भोजन करवावै वातके बिकार शान्तकरनेको निरूहकी योजना की जातीहै इससे इसमें रसके ओदन श्रेष्टहै क्योंकि विरेचन वमनसे अग्निका स्थान आच्छादित होताहै उससे अग्निमंद होजातीहै निरूह नामिक ऊर्च भागमें प्राप्त हुए विनाही दोष निकालताहै इससे अग्नि मंद नहीं होती इसकारण इसमें पेयादिका क्रम नहीं है ॥ ५० ॥
कोष्णेन वारिणा स्नानं तनु धन्वरसौदनम् ॥
विकारा ये निरूहस्य भवंति प्रचलैर्मलैः ॥५१॥ अर्थात् अल्प गरम हुये पानीस स्नान करवाके पीछे पतला मांसका रस और पके हुये चावलोंको भोजन करवावै और प्रचल मलोंसे जो निरूहके विकार उपजते हैं ॥ ५१॥
ते सुखोष्णाम्बुसिक्तस्य यान्ति भुक्तवतः शमम् ॥
अथ वातादितं भूयः सद्य एवानुवासयेत् ॥ ५२ ॥ वे सब सुखको देनेवाले गरम पानीकरके स्नान कियेके और पूर्वोक्त भाजनके करनेसे शांत होजाते हैं पीछे वातकरके पीडितको फिर शीघ्रही अनुवासनबम्तिसे प्रयुक्त करै ।। ५२ ॥
सम्यग्घीनातियोगाश्च तस्य स्युः स्नेहपीतवत् ॥ किञ्चित्कालं स्थितो यश्च सपुरषिो निवर्तते ॥ ५३॥
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