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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१५) दीप्तानीनां च भैषज्यमविरेच्यैव जीर्यति ॥ तेभ्यो बस्ति पुरा दद्यात्ततः स्निग्धं विरेचनम् ॥ ५४॥ दप्ति अग्निवालोंके अर्थ दिया औषध विरेचन भावको नहीं प्राप्त होकरही जरजाता है. इसवास्ते इन रूक्षआदि मनुष्योंके अर्थ पहले बस्तिको देवै पीछे स्निग्धरूप विरेचन अर्थात् जुलाबको देना ॥ ५४ ॥ शकृन्निहत्य वा किञ्चित्तीक्ष्णाभिः फलवर्तिभिः॥ प्रवृत्तं हि मलं स्निग्धो विरेको निहरेत्सुखम् ॥५५॥ अथवा तक्ष्णिरूप फलवर्तियोंकरके विष्ठाको बारंबार निकासै जब मलकी प्रवृत्ति होने लगे तब स्निग्धरूप विरेचन औषधके द्वारा मलको निकास ॥ ५५ ॥ विषाभिघातपिटिकाकुष्टशाकविसर्पिणः॥ कामलापाण्डुमेहा न्नातिस्निग्धान्विरेचयेत् ॥ ५६ ॥ विष, अभिघात, फुनसी, कुष्ठ, शोक, विसर्प, कामला, पांडु, प्रमेह, इन रोगोंसे पीडितोंको और जो अतिस्निग्ध नहीं ॥५६॥ सर्वान्स्नेहविरेकैश्च रूक्षैस्तु स्नेहभावितान् ॥ कर्मणां वमनादीनां पुनरप्यन्तरेऽन्तरे ॥५७ ॥ इन सब मनुष्योंको स्नेहरूप विरेचन द्रव्योंकरके शोधित करै, और स्नेहसे भावित हुये मनु'च्योंको रूखे द्रव्योंकरके शोधित करै और वमनआदि कर्मोके मध्य मध्यमें बारंबार ॥ १७ ॥ स्नेहस्वेदौ प्रयुञ्जीत स्नेहमन्ते बलाय च ॥ मलो हि देहादुलश्य ह्रियते वाससो यथा ॥ ५८॥ स्नेह और स्वेदको प्रयुक्त करै और अंतमें बलके अर्थ फिर स्नेहको प्रयुक्त कर और देहसे उत्क्लेशित हुआ मल शोधन और विरचनआदि औषधोंकरके हराजाता है जैसे वस्त्रसे मल ॥ ५८ ॥ स्नेहस्वेदैस्तथोक्लेश्य ह्रियते शोधनैर्मलः ॥ स्नेहस्वेदावनभ्यस्य कुर्यात्संशोधनं तु यः॥ दारु शुष्कमिवानामे शरीरं तस्य दीर्यते ॥ ५९॥ अर्थात् स्नेह और स्वेदोंकरके उक्लेशित हुआ मल शोधनद्रव्योंसे निकासा जाता है जो मनुष्य स्नेह और स्वेदका अभ्यास नहीं करके शोधन कर्मको करता है तिस मनुष्यका शरीर नमन करनेमें टूट जाता है जैसे सूखा काष्ठ ॥ ५९॥ बुद्धिप्रसादं वलमिन्द्रियाणां धातुस्थिरत्वं ज्वलनस्य दीप्तिम् ॥ . चिराच्च पाकं वयसः करोति संशोधनं सम्यगुपास्यमानम् ॥ ६॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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