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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७४) अष्टाङ्गहृदयेमनुष्यों को पेयाका पान नहीं करावे किन्तु तर्पणआदि क्रमको सेवना हित है और अपक्क हुआ वमन संज्ञक औषध दोषोंको निकासता है और पच्यमान हुआ विरेचन दोषोंको निकासता है ॥ ४७ ॥ निर्हरेद्वमनस्यातः पाकं न प्रतिपालयेत् ॥ दुर्बलो बहुदोषश्चदोषपाकेन यः स्वयम् ॥४८॥ इसवास्ते वमनके पाकको प्रतिपालित नहीं करें और दुर्बल और बहुत दोषोंवाला मनुष्य '-दोषोंके पाक करके आपही ॥ ४८ ॥ विरच्यते भेदनीयैर्भोज्यैस्तमुपपादयेत्॥ दुर्बलःशोधितः पूर्वमल्पदोषः कृशो नरः ॥ ४९ ॥ . विरेचनको प्राप्त होता है, इस कारण भेदन करनेवाले भोजनों करके इसको उपयुक्त करे और दुर्बल, पहले शोधित किया, अल्पदोषोंवाला, कृश, ॥ ४९ ॥ ___ अपरिज्ञातकोष्टश्च पिबेन्मृद्वल्पमौषधम् ॥ वरं तदसकृत्पीतमन्यथा संशयावहम् ॥ ५० ॥ जो अपने कोष्ठको नहीं जानता हो वह मनुष्य कोमल और अल्प औषधका पान करे, इसी‘कारण उसे बारंबार विरेचनसंज्ञक औषधको पीना श्रेष्ठ है, अन्यथा अर्थात् बहुत और तीक्ष्णरूप विरेचनसंज्ञक औषधका पान संशयको देता है ॥ ५० ॥ हरेहूंश्चलान् दोषानल्पानल्पान्पुनःपुनः॥ दुर्वलस्य मृदुद्रव्यैरल्पान्संशमयेत्तु तान् ॥ ५१॥ बहुत चलायमान हुये दोषोंको बारंबार अल्प अल्परूप निकासता रहै और दुर्बल मनुष्यके कामल द्रव्योंकरके अल्परूप तिन दोषोंको शांत करै ॥ ११ ॥ क्लेशयन्ति चिरं ते हि हन्युर्वैनमनिहताः॥ मन्दाग्निं क्रूरकोष्ठं च सक्षारलवणैघृतैः॥ ५२ ॥ और नहीं निकले हुए दोष चिरकालतक रोगीको क्लेशित करते हैं, अथवा मार देते हैं और मंदाग्निवालेको तथा क्रूरकोष्ठबालेको खार और लवणकरके सिद्ध हुये घृतोंकरके ।। ५२ ॥ सन्धुक्षिताग्निं विजितकफवातं च शोधयेत् ॥ रूक्षबह्वनिलक्रूरकोष्ठव्यायामशीलिनाम् ॥ ५३॥ तीक्ष्णअग्निवाला और कफ वातको जीतनेवाला बनाकर शोधित करे और रूक्ष, बहुतसे वात वाला, क्रूरकोष्टवाला, कसरतका अभ्यास करनेवाला ॥ ५३ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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