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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१७३) मांसधावनतुल्यं वा मेदःखंडाभमेव वा ॥ गुदनिःसरणं तृष्णा भ्रमो नेत्रप्रवेशनम् ॥ ४१ ॥ और मांसके धोवनके समान और मेदके टुकडेके समान कांतिवाला पानी गुदाके द्वारा झिरने लगता है, पीछे गुदाका निकसना, तृषा, भ्रम, नेत्रोंका भीतरको प्रवेश ॥ ४१ ॥ भवन्त्यतिविरिक्तस्य तथातिवमनामयाः॥ सम्यग्विारक्तमेनं च वमनोक्तेन योजयेत् ॥४२॥ ये सब और अतिवमनसे उपजे क्षामताआदि रोग उपजते हैं, सब लक्षण अतिविरेचन अर्थात् ज्यादे जुलाब लगनेवाले मनुष्यके उपजते हैं ऐसे अतिविरक्त हुये मनुष्यको धूमसे वार्जत वमनोक्त. विधिकरके योजित करै ॥ ४२ ॥ धूमवयेन विधिना ततो वमितवानिव ॥ क्रमेणान्नानि भुञ्जानो भजेत्प्रकृतिभोजनम् ॥४३॥ इसके अनंतर वमन करनेवाले मनुष्यकी तरह अन्नोंको खाता हुआ पीछे प्रकृतिके अनुसार भोजनको सेवै ॥ ४३ ॥ मन्दवह्निमसंशुद्धमक्षामं दोषदुर्बलम् ॥ अदृष्टजीर्णलिङ्गं च लंघयेत्पीतभेषजम् ॥४४॥ मंदाग्निवाला, शुद्धिसे रहित, स्थूल, दोषदुर्बल, जीर्ण होनेके चिह्नसे रहित औषधके पीनेवाले इन सबोंको लंघन करवावे ॥ ४४ ॥ स्नेहस्वेदौषधोक्लेशसंगैरिति न बाध्यते ॥ संशोधनासविस्रावस्नेहयोजनलङ्घनैः॥४५॥ स्नेह, स्वेद, औषध इन्होंके उत्क्लेश और संगकरके अर्थात् लंघन कियेसे मंदाग्नि आदिरोग नहीं उपजते हैं और संशोधन, रक्तका निकासना, स्नेहका योग, लंघन इन्हों करके ॥ ४५ ॥ यात्यग्निर्मन्दतां तस्मात्क्रम पेयादिमाचरेत् ॥ - स्त्रुताल्पपित्तश्लेष्माणं मद्यपं वातपैत्तिकम् ॥ ४६॥ जठराग्नि मंदभावको प्राप्त होजाता है तिस कारणसे पेया आदि क्रमको सेवन करना तब अग्नि दप्ति होता है और पतित हुये अल्परूप पित्त और कफवाले मनुष्यमें मदिराको पीनेवाले, वात और पित्तकी प्रकृतिवाले ॥ ४६॥ पेयां न पाययेत्तेषां तर्पणादिक्रमो हितः ॥ अपक्कं वमनं दोषान्पच्यमानं विरेचनम् ॥४७॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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