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अष्टाङ्गहदये
(१७०)
वायुकरके मिलेहुये कफमें स्निग्ध, अम्ल, लवण, इन द्रव्योंकरके वमन करें और जबतक पित्तका दर्शन होवे और कफका अंत होवे तबतक वमन करता रहै ।। २२ ।।
हीनवेगः कणाधात्रीसिद्धार्थलवणोदकैः॥
वमेत्पुनः पुनस्तत्र वेगानामप्रवर्त्तनम् ॥२३॥ हीनवेगोंवाला मनुष्य पीपल, आमला, सरसों, लवण, पानी इन्होंकरके बारंबार वमन करे तिन्होंमें वेगोंका अप्रवर्तनभी अयोग्य है अर्थात् वेग प्रवृत्त न हो तो अयोग्य है ॥ २३ ॥
प्रवृत्तिः सविबन्धा वा केवलस्यौषधस्य वा ॥ .. अयोगस्तेन निष्ठीवकण्डूकोठज्वरादयः ॥ २४ ॥
विबंधसहित जो प्रवृत्ति यहभी अयोग है अथवा केवल औषधकी जो प्रवृत्ति वहभी अयोग है तिन अयोगोंकरके निष्ठीवन, कंडू, कोठरोग, ज्वर आदि रोग उपजतेहैं ।। २४ ॥
निर्विवन्धं प्रवर्त्तन्ते कफपित्तानिलाः क्रमात् ॥
सम्यग् योगेऽतियोगे तु फेनचन्द्रकरक्तवत् ॥ २५॥ सम्यक् योगमें कफ, पित्त, वात ये क्रमसे संगकरके रहित प्रवृर्तहोते हैं और अतियोगमें झाग । चंद्रिका, रक्त इन्होंके समान वमन प्रवृत्त होता है ॥ २५ ॥
वमितं क्षामता दाहः छण्ठशोषस्तमो भ्रमः॥
घोरा वाय्वामया मृत्युर्जीवशोणितनिर्गमात् ॥ २६ ॥ रक्तके निकाससे अंधेरी, दाह, कंठका शोष, क्षामता, भ्रम, घोररूप वायुके रोग मृत्यु उपजता है ।। २६ ॥
सम्यग्योगेन वमितं क्षणमाश्वास्य पाययेत्॥
धूमत्रयस्यान्यतमं स्नेहाचारमथादिशेत् ॥ २७॥ सम्यक् योगकरके वमनको लेनेवाले मनुष्यको एक मुहूर्ततक शीतवायुआदि करके आश्वासित करके पीछे स्निग्ध, मध्य, तीक्ष्ण, इन तीनों प्रकारके धूमोंमेंसे किसी एक धूमको पान करवाने और उष्ण पानीके उपचारआदि क्रमको शिक्षित करै ॥ २७ ॥
ततः सायं प्रभाते वा क्षुद्वान् स्नातः सुखाम्बुना ॥
भुञ्जानो रक्तशाल्यन्नं भजेत्पेयादिकं क्रमात् ॥ २८॥ पीछे सायंकालमें अथवा प्रभातमें बुभुक्षित और सुखपूर्वक सुहाते हुये पानीकरके स्नानकरके पीछे रक्त शालि अन्नको भोजन करताहुआ पेयाआदिको क्रमसे सेवै ॥ २८ ॥
पेयां विलेपीमकृतं कृतञ्च यूषं रसं त्रीनुभयं तथैकम् ॥ क्रमेण सेवेत नरोऽनकालान् प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः ॥२९॥
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