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- यह औषव तुझे गुणकरे ॥ १७ ॥
सूत्रस्थानं भाषाटीका समेतम् ।
रसायनमिवर्षीणाममराणामिवामृतम् ॥ सुधेवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते ॥ १७ ॥
ऋषियोंक रसायनकी तरह और देवताओंके अमृतके समान और उत्तम नागों की सुधा के समान
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ॐ नमो भगवते भैषज्यगुरवे वैदूर्यप्रभराजाय ॥ तथागतायार्हते सम्यक् सम्बुद्धाय । तद्यथा ॥ ॐ भैषज्ये भैषज्ये महाभैषज्ये समुद्रते स्वाहा ॥ प्राङ्मुखं पाययेत् पीतं मुहूर्त्तमनुपालयेत् ॥ तन्मना जातहृल्लासप्रसेकरछर्दयेत्ततः ॥ १८ ॥
( १६९ )
ऐसे इन दो मंत्रको उच्चारण करके पीछे अतिऐश्वर्यवाले और वैडूर्यमणिके समान कांतिकरके प्रकाशित और तैसेही प्राप्तहुये और पूजाके योग्य और अच्छीतरह संप्रबुद्ध औषधकर्मके गुरुके अर्थ नमस्कार हो, ऐसे कहकर पीछे ॐ भैषज्ये भैषज्ये महाभैषज्ये समुद्रते स्वाहा इस मंत्र का उच्चारण करके पूर्वोक्त मात्राको पूर्वके तर्फ मुख किये मनुष्यको पान करवावै, पीछे तिस औषधमात्राका पान करके एक मुहूर्त अर्थात् दो वडीतक वमन करनेमें मनको लगाकर अनुपालित करता है। 'पीछे जब थुकधुकी और प्रसेक उपजै तिसकालके पश्चात् छर्दि करै ॥ १८ ॥
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अङ्गुलिभ्यामनायस्तो नालेन मृदुनाथ वा ॥
गलताल्व रुजन्वेगानप्रवृत्तान्प्रवर्त्तयन् ॥ १९ ॥
अर्थात् अनायासकरके संयुक्त और गल तथा तालुको नहीं पीडित करता हुआ दो अंगुलियों करके और कोमल अरंड आदिकी नालीकरके अप्रवृत्त हुये वेगोंको प्रेरित करता हुआ ॥ १९ ॥ प्रवर्त्तयन् प्रवृत्तांश्च जानुतुल्यासने स्थितः ॥
उभे पार्श्वे ललाटञ्च वमतश्चास्य धारयेत् ॥ २० ॥
और प्रवृत्त हुये वेगोंको प्रवृत्त करै और गोडोंके प्रमाण आसन स्थित हुआ और जब वमन
होने लगे तब इस मनुष्यके दोनों पसली और मस्तकको धारित करे ( धामले ) ॥ २० ॥ प्रपीडयेत्तथा नाभि पृष्ठञ्च प्रतिलोमतः ॥
कफे तीक्ष्णोष्णकटुकैः पित्ते स्वादुहिमैरिति ॥ २१ ॥
और प्रतिलोमसे नाभि और कटिको पीडित करै, कफके रोग में तीक्ष्ण, गरम, कटु द्रव्योंकरके वमन करे और पित्तजरोगमें स्वादु और शीतल द्रव्यों करके वमन करे सोंठ मिरच पीपल आदि तीक्ष्ण औषध कहाती हैं । अनार मुनक्का दाख मिश्री आदि मधुर औषध हैं ॥ २१ ॥ वमेत्स्निग्धाम्ललवणैः संसृष्टे मरुता कफे ॥
पित्तस्य दर्शनं यावच्छेदों वा श्लेष्मणो भवेत् ॥ २२ ॥