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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१७१) प्रधान, मध्य, हीन इन शुद्धियोंकरके शुद्ध हुआ मनुष्य कमकरके तीन दो और एक अन्न
भोजनके समय पेयाको सेवै जैसे प्रधान शुद्धिकरके शुद्ध हुआ मनुष्य प्रथमदिनमें दोनों अन्न कालोंमें पेयाको सेवै और दूसरे दिनमें एक अन्नकालकेप्रति विलेपीको सेवै और तीसरे दिन दोदो अन्नकालोमेंभी विलेपीको सेवै और चौथे दिन शुंठी लवणआदिकरके नहीं संस्कृत किये यूषको दो कालोंमें सेधै और पांचवें दिन प्रथम अन्नकालमें यूषको और तीनों कालोंमें शुठिआदिसे असंस्कृत किये यूषको सेवै इसप्रकार कृत और अकृत रसका विभाग कर पीछे सातवें दिन प्रकृतिक योग्य भोजनको सेवै ॥ २९॥
यथाणुरग्निस्तृणगोमयायैः सन्धक्षमाणो भवति क्रमेण ॥ महान् स्थिरः सर्वपचस्तथैव शद्धस्य पेयादिभिरन्तराग्निः ॥३०॥
जैसे सूक्ष्मअग्नि तृण, गोवर आदिकरके संधुक्षमाण हुआ अर्थात् उद्दीपमान हुआ महान्, स्थिर, सर्वपच नामोंवाला होजाता है, तैसे शुद्ध हुये मनुष्यके पेयाआदिकरके जठराग्निभी महान, स्थिर, . सर्वपच होजाती है ॥ ३० ॥
जघन्यमध्यप्रवरे तु वेगाश्चत्वार इष्टा वमने षडष्टौ ॥ दशैव ते द्वित्रिगुणा विरेके प्रस्थस्तथा स्याद्दिचतुर्गुणश्च ॥३१॥
हीन, मध्य, उत्तम, वेगोंमें क्रमकरके चार चार छः छ: और आठ आठ वेगहोते हैं और हीन, • मध्य, उत्तम, विरेचनोंमें क्रमसे दश दश और बीस और तीस ऐसे वेग होजाते हैं हीन विरेचनमें ६४ तोले मल निकलताहै और मध्य विरेचनमें १२८ तोले मल निकसता है, और उत्तम विरेचनमें २५६ तोले मल निकलता है ॥ ३१ ॥
पित्तावसानं वमनं विरेकादई कफान्तञ्च विरेकमाहुः॥ द्वित्रान्सविट्कानपनीय वेगान्मयं विरके वमने तु पीतम्॥३२॥ पित्त निकसने लगे वह वमन श्रेष्ठ है और कफ निकसने लगै वह विरेचन श्रेष्ठ है और विरेचन करके निकले हुये मलसे वमनमें आधामल निकलता है और विरेचनमें दो दो अथवा तीन तीन विष्ठा सहित वेगोंको त्यागकर प्रमाण करना और वमनमें पानकिया औषधको त्यागकर प्रमाण करना अर्थात् जितनी औषधी दोहो उसे छोडकर शेष मल जानना ॥ ३२॥
अथैनं वामितं भूयः स्नेहस्वेदोपपादितम् ॥
श्लेष्मकाले गते ज्ञात्वा कोष्ठं सम्यग्विरेचयेत् ॥३३॥ ऐसे मनुष्यको वमन कराके बारंबार फिरभी स्नेह और स्वेद करके उपपादित करे और कफके. कालके गये पीछे कोष्टको मृदु क्रूर आदि जानकर अच्छीतरह विरेचन देवै ॥ ३३ ॥
बहुपित्तो मृदुः कोष्ठः क्षीरेणापि विरेच्यते॥ प्रभूतमारुतः क्रूरः कृच्छ्रायामादिकैरपि ॥३४॥
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