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(१६६)
अष्टाङ्गहृदयेयथायोग्य औषधके विभागसे स्वेदकर्मको प्रयुक्त करे और मेंद तथा कफकरके आवृत हुये। वातमें अग्निसे रहित स्वेदकर्म करना योग्य है ॥ २८ ॥
निवातं गृहमायासो गुरुप्रावरणं भयम् ॥ .
उपानाहाहवक्रोधभूरिपानं क्षुधातपः॥ २९ ॥ वातसे रहित स्थान, कसरत, भारीकंबलआदिको धारण करना, भय, पट्टीबंधन, युद्ध, क्रोध, बहुतसी मदिराका पान, भूख, घाम ये सब अग्निसे रहित स्वेदकर्म है अर्थात् पसीनेको देते हैं ॥ २९॥
स्नेहक्लिन्नाः कोष्ठगा धातुगा वा स्रोतोलीना ये च शाखास्थि संस्थाः॥दोषाः स्वेदैस्ते द्रवीकृत्य कोष्ठं नीताः सम्यक्शुद्धि
भिर्निह्रियन्ते ॥३०॥ स्नेहकरके गीले हुये और कोष्टमें प्राप्त हुये और धातुओंमें प्राप्त हुये और स्रोतोंमें लीन हुये और शाखाओंमें तथा हड्डियोंमें स्थित वातआदि दोष स्वेदोंकरके द्रवभावको प्राप्त होकर कोष्टमें स्थित हुये पीछे अच्छीतरह वमन और विरेचनआदि शुद्धियोंकरके निकासित कियेजाते हैं ॥ ३०॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपण्डितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥
अष्टादशोऽध्यायः।
अथातो वमनविरेचनविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर वमनबिरेचनविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
कफे विध्याद्वमनं संयोगे वा कफोल्बणे ॥ .. तद्वद्विरेचनं पित्ते विशेषेण तु वामयेत् ॥१॥
कफमें वमनको करावै और कफकी अधिकतावाले अन्यदोषमेंभी वमन करावै और पित्तमें तथा पित्तकी अधिकतावाले अन्यदोषमें विरेचन अर्थात् जुलाबको देवै, और इन वक्ष्यमाण रोगियोंको विशेषकरके वमन करावै ॥ १॥
नवज्वरातिसाराधः पित्तासृग्राजयक्ष्मिणः॥
कुष्ठमेहापचीग्रन्थिश्लीपदोन्मादकासिनः ॥२॥ नवीन ज्वर, अतिसार, नीचाके अंगोंमें गत रक्तपित्त, राजयक्ष्मा, कुष्ठ, प्रमेह अपची, ग्रंथि, .. श्लोपद, उन्माद, खांसी ॥ २ ॥
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