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( १६४ )
मष्टाङ्गहृदये
आमाशयगतवायुमें प्रथम रूक्ष और पीछे स्निग्ध ऐसा स्वेद करावे और पक्काशयगत कफमें प्रथम स्नेह स्वेद और पीछे रूक्ष स्वेद स्थानके अनुरोधसे करवावै ॥ १४ ॥
अल्पं वंक्षणयोः स्वल्पं दृग्मुष्कहृदये न वा ॥ शीतशूलक्षये स्विन्नो जातेऽङ्गानां च मार्दवे ॥ १५ ॥
पोते अर्थात आंडोंकी संधियोंमें अल्प पसीना देना अथवा नेत्र - पोते – हृदयइन्होंमें पसीनाको नहीं देवै अथवा अत्यंत अल्प पसीना देवै शीत और शूलके क्षय होनेमें और अंगोंकी कोमलता होनें में स्विन्नरूप मनुष्य होता है ॥ १५ ॥
स्याच्छनैर्मृदितः स्नातस्ततः स्नेहविधिं भजेत् ॥ पित्तास्रकोपतृण्मूर्च्छास्वराङ्गसदनभ्रमाः ॥ १६ ॥
वही स्विन्नमनुष्य मंद मन्द तरहसे मार्दैत अंगोंवाला होकर और स्नान करके पीछे स्नेहविधिको सेवे और रक्तपित्तका कोप- तृषा, मूर्च्छा, स्वरभंग, अङ्गकी शिथिलता, भ्रम, ॥ १६ ॥ सन्धिपीडाज्वरश्यावरक्तमंडलदर्शनम् ॥
स्वेदातियोगाच्छर्दिश्च तत्र स्तम्भनमौषधम् ॥ १७ ॥
संधिपीडा – ज्वर, श्याव और रक्तरूप मंडलोंका दर्शन, छर्दि ये सब रोग अत्यंत वेदकर्म उपजते हैं तहां स्तंभनरूपी औषव श्रेष्ठ है ॥ १७ ॥
विषक्षाराग्न्यतीसारच्छर्दिमोहातुरेषु च ॥
स्वेदनं गुरुतीक्ष्णोष्णं प्रायः स्तम्भनमन्यथा ॥ १८ ॥ विष-खार-अग्नि- अतिसार - छार्दै --मोह इन्होंकर के पीडित मनुष्यों में भी स्तंभनरूप औषधी श्रेष्ठ है और अतिस्वेद - तीक्ष्ण- उष्ण कहता है, और इसके विपरीत स्तंभन होता है ॥ १८ ॥ द्रवस्थिरसरस्निग्धरूक्षसूक्ष्मं च भेषजम् ॥
स्वेदनं स्तम्भनं श्लक्ष्णं रूक्षसूक्ष्मसरद्रवम् ॥ १९ ॥
द्रव—स्थिर, सर, स्निग्ध, रूक्ष, सूक्ष्म, औषध स्वेदन कहाती है और लक्ष्ण, रूक्ष सूक्ष्म, सर, द्रव गुणोंसे संयुक्त औषध स्तंभन होती है ॥ १९ ॥
प्रायस्तिक्तं कषायं च मधुरं च समासतः ॥
स्तम्भितः स्याइले लब्धे यथोक्तामयसङ्क्षयात् ॥ २० ॥ प्रायताकरके तिक्तकषाय—–मधुर द्रव्य स्तंभन होता है, बलकी लब्धि होनेपे यथोक्तरोगों के मनुष्य स्तंभित होता है ॥ २०॥
संक्षयसे
स्तम्भत्वकूस्नायुसङ्कोचकम्पहृद्वाग्घनुग्रहैः ॥ पादोष्ठत्वकरैः श्यावैरतिस्तम्भितमादिशेत् ॥ २१ ॥
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