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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१६१) ये सातों मनुष्यको शीघ्र स्नेहित करते हैं, तथा लवणकरके संयुक्त किये स्नेहभी शीघ्र स्नेहित करदेते हैं, क्योंकि जिस कारणसे लवण कफको करता है और रूक्ष नहीं है और सूक्ष्म है और गरम है और व्यवायी अर्थात् संपूर्ण शरीरमें व्याप्त होकर पाकको प्राप्त होता है ॥ ४२ ॥ ____ गुडानूपामिषक्षीरतिलमाषसुरादधि ॥
कुष्ठशोफप्रमेहेषु स्नैहार्थं न प्रकल्पयेत् ॥४३॥ कुष्ठ, शोजा, प्रमेह, इन रोगोंमें गुड अनूपदेशका मांस, दूध, तिल, उडद, मदिरा, दही इन्होंको स्नेहन करनेफे अर्थ प्रयुक्त नहीं करै ॥ ४३ ॥
त्रिफलापिप्पलीपथ्यागुग्गुल्वादिविपाचितान् ॥ स्नेहान् यथास्वमेतेषां योजयेदविकारिणः॥
क्षीणानां त्वामयैरग्निदेहसन्धुक्षणक्षमान्॥ ४४ ॥ त्रिफला, पीपल, हरडे, गूगल, आदि औषधोंकरके विपाचित किये स्नेहोंको इन कुष्ठ आदिके संबंधी विकारवालोंके यथायोग्य प्रयुक्त करै, रोगोंकरके क्षीण मनुष्योंके अर्थ अग्निको दीपन करने.. वाले और देहको पुष्ट करनेवाले स्नेहोंको प्रयुक्त करै ।। ४ ४ ॥
दीप्तान्तराग्निः परिशुद्धकोष्ठः प्रत्यग्रधातुर्बलवर्णयुक्तः॥ दृढेन्द्रियो मन्दजरः शतायुः स्नेहोपसेवी पुरुषः प्रदिष्टः॥४५॥ स्नेहको सेवनेसे अतिदीप्तअग्निवाला और परिशुद्धकोष्ठवाला और पुष्टधातुओंवाला और बलवर्णकरके संयुक्त और दृढइंद्रियोंवाला और शीत्र वृद्धताको न प्राप्तहानेवाला सौ १०० वर्षोंकी आयुवाला मनुष्य होसक्ता है ॥ ४५ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने षोडशोऽध्यायः॥ १६ ॥ सप्तदशोऽध्यायः।
अथातः स्वेदविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर स्वेदविधिनामवाले अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
स्वेदस्तापोपनाहोष्मद्रवभेदाच्चतुर्विधः॥
तापोऽग्नितप्तवसनफालहस्ततलादिभिः ॥ १॥ ताप, उष्ण, उपनाह, द्रव इन भेदोंसे स्वेदकर्म चारचार प्रकारका है तिनमें अग्निकरके तप्त किये बस्त्र, लोहाका गोला, हाथोंकी हथेली आदिकरके ताप स्वेद होता है, वालुका आदिकी पोटलीसे शरीरको तपाकर पसीना निकालनेको ताप कहते हैं काढे आदिका बफारा देकर पसीना
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