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(१६०)
अष्टाङ्गहृदयेस्निग्धव्यहं स्थितः कुर्याद्विरेकं वमनं पुनः॥
एकाहं दिनमन्यच्च कफमुल्लेश्य तत्करैः॥३६॥ स्निग्धमनुष्य पीछे तीन दिनोंतक स्थित होकर जुलाबको लवै, अथवा जो स्नेहके अनंतर वम नको उपयुक्त करै तो एकदिन पूर्वोक्तरूप मांसके रसको खावै, पीछे दूसरे दिन कफको हरनेवाले द्रव्योंकरके कफको उक्लेशितकरके वमन करे ॥ ३६ ॥
मांसला मेदुरा भूरिश्लेष्माणो विषमाग्नयः॥
स्नेहोचिताश्च ये स्नेह्यास्तान् पूर्वं रूक्षयेत्ततः॥३७॥ अतिमांस और मेदवाले, बहुतसा कफवाले और विषम अग्निवाले और स्नेहकी इच्छा करनेवाले और शोधनके अर्थ स्नेहके योग्य इन सबोंको पहले रूक्षित करै ।। ३७ ॥
संस्नेह्य शोधयेदेवं स्नेहव्यापन्न जायते ॥
अलं मलानीरयितुं स्नेहश्चासात्म्यतां गतः॥ ३८॥ ऐसे स्नेहित किये मनुष्यको शोधित करावै तब स्नेहकी व्यापद नहीं उपजती है और असात्म्या पनेको प्राप्त हुआ स्नेह सब मलोंको प्रेरित करनेको समर्थहै ॥ ३८ ॥
बालवृद्धादिषु स्नेहपरिहारासहिष्णुषु॥
योगानिमाननुद्वेगान् सद्यः स्नेहान् प्रयोजयेत् ॥३९॥ बालक, वृद्ध, स्नेहके पारहारको नहीं सहनेवाले मनुष्योंके अर्थ उद्वेगको नहीं करनेवाले और तत्काल स्नेहित करनेवाले योगोंको प्रयुक्त करै ॥ ३९ ॥
प्राज्यमांसरसास्तेषु पेया वा स्नेहभर्जिता॥ तिलचूर्णश्च सस्नेहफाणितः कृशरा तथा॥४०॥ और तिन मनुष्योंके अर्थ पुष्टमांसोंके रस, अथवा स्नेहकरके भ्रष्टकरी पेया, तिलोंका चूर्ण, स्नेहसहित फाणित, कृशरा ॥ ४० ॥
क्षीरपेया घृताढ्योष्णा दनो वा सगुडः सरः॥
पेया च पञ्चप्रसृता स्नेहैस्तण्डुलपञ्चमैः ॥४१॥ घृतकरके संयुक्त और उष्ण ऐसी दुग्ध पेया, गुडसहित दहीका सर, घृत, तेल, वसा, मज्जा, चावल इन्होंकी पांच प्रसृतों करके संयुक्त पेया दोपलका नाम प्रसृत है चार तोलेका एकपल होता है ॥ ४१ ॥ . सप्तैते स्नेहनाः सद्यः स्नेहाश्च लवणोल्बणाः ॥
तद्धयभिस्यन्द्यरूक्षं च सूक्ष्ममुष्णं व्यवायि च ॥४२॥
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