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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१४३) युक्तिकरके व देश-काल-आदिके बलका अनुरोध करके तिन रोगियोंकी चिकित्सा करे, 'अर्थात् लंधित नहीं करवावै, और बृंहित होनेसे बल-पुष्टि-बृंहण साध्यरोगोंका नाश होताहै १६॥
विमलेन्द्रियता सर्गो मलानां लाघवं रुचिः॥
क्षुत्तृट्सहोदयः शुद्धहृदयोद्गारकण्ठता ॥ १७॥ इंद्रियोंका विमलपना-मलोंका बंधेज-हलकापन-रुचि-मूख और तृषाका साथ उदय हृदयकी शुद्धि-शुद्ध डकारोंका कंठमें आना ॥ १७ ॥
व्याधिमार्दवमुत्साहस्तन्द्रानाशश्च लङ्धिते ॥
अनपेक्षितमात्रादिसेविते कुरुतस्तु ते ॥१८॥ रोगका कोमलपना-उत्साह-तंद्राका नाश-ये-सब लंघन करते उपजते हैं, और अनपेक्षितमात्रा आदिकरके सेवित किये बृहण और लंबन ॥ १८ ॥
अतिस्थौल्यातिकार्यादीन्वक्ष्यन्ते ते च सौषधाः ॥
रूपं तैरेव च ज्ञेयमतिबंहितलविते ॥ १९॥ अतिस्थूलपना--अतिकृशपना आदि रोगोंको करते हैं, सो औषधोंकरके सहित कार्यआदि रोगोंको वर्णन करेंग और अतिबृहितमें और अतिलंघितमें अतिस्थूलपना आदि और अतिकशपना आदिकरके रूपजानना योग्य है ।। १९॥
अतिस्थौल्यापचीमेहज्वरोदरभगन्दरान् ॥ काससंन्यासकृच्छ्रामकुष्ठादीनतिदारुणान् ॥२०॥ अतिवृहित करनेसे अतिस्थूलता अपची-प्रमेह-बर-उदररोग भगंदर--खांसी संन्यासरोगआम--कुष्ठ-आदि दारुणरोग उपजते हैं ॥ २० ॥
तत्र मेदोऽनिलश्लेष्मनाशनं सर्वमिष्यते ॥
कुलत्थजूर्णश्यामाकयवमुद्गमधूदकम् ॥ २१॥ इन अतिस्थूलता आदिमें मेद-वात-कफको नाशनेवाला औषध वांछित है, और कुर्थाचणक-श्यामाक-जब-मूंग-शहद-पानी ॥ २१ ॥
मस्तुदण्डाहतारिष्टचिन्ताशोधनजागरम् ॥
मधुना त्रिफलां लिह्याद्गुडूचीमभयां धनम् ॥ २२ ॥ दहीका पानी-बिलोया दही-अरिष्ट-चिंता-शोधन-जागना-और त्रिफला-गिलोय हरडैनागरमोथा-इन्होंको शहदमें मिलाना ।। २२ ॥
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