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(१४०)
अष्टाङ्गहृदयेव्यानवायु कुपित होवे तो प्रभातके भोजनके अंतमें औषधको देना. और उदानवायु कुपित होवे तो सायंकालके भोजनके अंतमें औषधको देना, और प्राणवायु कुपित होवे तो ग्रासमासके अंतरमें भौषधको देना ॥ ३९॥
मुहुर्मुहुर्विषर्दिहिध्मातृश्वासकासिषु ॥
योज्यं सभोज्यं भैषज्यं भोज्यैः श्वित्रैररोचके ॥ ४० ॥ विष-छर्दि-हिचकी-तृषा-श्वास-खांसी-इन रोगवालोंके अर्थ बारंबार औषधको देना, और अरोचकरोगमें अनेक प्रकारके चित्र भोजनोंके संग औषधको देना ॥ ४० ॥
कम्पाक्षेपकहिध्मासु सामुद्नं लघुभोजिनाम् ॥
ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु स्वप्नकाले प्रशस्यते ॥४१॥ कंप-आक्षेपक आदि रोगोंमें हलके भोजन करनेवाले मनुष्योंको भोजनकी आदिमें और अंतमें औषधको देना और कंधे और छातीकी संधिवाली हड्डियोंसे ऊपरके विकारोंमें शयनके समय औषधको देना उचित है ॥४१॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपीडतरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषार्टीकायां
सूत्रस्थाने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ . . चतुर्दशोऽध्यायः। अथातो द्विविधोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर द्विविधोपक्रमणीयनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
उपक्रम्यस्य हि द्वित्वाद् द्विधैवोपक्रमो मतः ॥
एकः सन्तर्पणस्तत्र द्वितीयश्चापतर्पणः॥१॥' चिकित्साके योग्य दो प्रकारवाले होनेसे उपक्रम अर्थात् चिकित्साभी दो प्रकारकी है तिन्होंमें एक संतर्पण है और दूसरा अपतर्पण है ॥ १॥
बृंहणो लङ्घनश्चेति तत्पर्यायाबुदाहृतौ ॥
बृंहणं यबृहत्त्वाय लङ्घनं लाघवाय यत्॥२॥ संतर्पणका पर्याय बृंहण है अपतर्पणका पर्याय लंघन है जो देहको पुष्ट करै वह बृंहण कहाता है और जो देहको हलका करै वह लंघन कहाता है ॥२॥
देहस्य भवतः प्रायो भौमापमितरच ते॥ स्नेहनं रूक्षणं कर्म स्वेदनं स्तम्भनं च यत् ॥३॥
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