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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१३९) ग्रीष्मवर्षाहिमचितान् वायवादीनाशु निर्हरेत् ॥
अत्युष्णवर्षशीता हि ग्रीष्मवर्षाहिमागमाः॥३४॥ अर्थात् ग्रीष्मऋतुमें संचित हुये वातको श्रावणमें निकासै और वर्षाऋतुमें संचित हुये पित्तको कार्तिक अर्थात् शरद् ऋतुमें निकासै और हिम तथा शिशिरऋतुमें संचित हुये कफको चैत्र अर्थात् वसंतऋतु, निकासै ॥ ३४॥
सन्धौ साधारणे तेषा दुष्टान् दोषान् विशोधयेत् ॥
स्वस्थवृत्तमभिप्रेत्य व्याधौ व्याधिवशेन तु ॥३५॥ तिन ऋतुओंकी साधारण संधिमें दुष्ट हुये दोषोंको शोधित करै यह साधारण काल स्वस्थमनुध्वके वास्ते कहा है परंतु रोगकी उत्पत्ति होवै तो रोगके वशकरके दोषोंको शोधित करै ॥ ३५॥
कृत्वा शीतोऽष्णवृष्टीनां प्रतीकारं यथायथम् ॥
प्रयोजयेत् क्रियां प्राप्तां क्रियाकालं न हापयेत् ॥ ३६॥ शीत-उष्ण-वर्षा-इन्होंका यथायोग्य प्रतीकार करके क्रियाको प्रयुक्त करै परन्तु क्रियाके कालको त्यागे नहीं ॥ ३६॥
युञ्ज्यादनन्नमन्नादौ मध्येऽन्ते कवलान्तरे ॥
ग्रासेपासे मुहुः सान्नं सामुद्रं निशि चौषधम् ॥ ३७ ॥ अन्नको आदिमें औषधको प्रयुक्त करै और अन्नके भोजनके मध्यमें औषधको प्रयुक्त कर और अन्नके अंतमें औषधको प्रयुक्त करै, और दो ग्रासोंके अंतरमें औषधको प्रयुक्त करै और प्रास प्रासमें औषधको प्रयुक्त करै और बारंबार मुक्त और अभुक्त कियेके अर्थ औषधको प्रयुक्त करै और अन्नके संग औषधको प्रयुक्त करें और सामुद्ग अर्थात् भोजनके पहले और पश्चात्भी औषधको प्रयुक्त कर और निशि अर्थात् शयन करनेके समयमें औषधको प्रयुक्त करै, ऐसे औषधको ग्रहण करनेके दश भेद हैं ॥ ३७ ॥ .
कफोद्रेके गदो नान्नं बलिनो रोगरोगिणोः॥
अन्नादौ विगुणेऽपानेसमाने मध्य इष्यते ॥३८॥ कफकी अधिकतावाले रोगमें अन्नकरके रहित औषधको प्रयुक्त करै परंतु रोग और रोगी बलवाले होवें तो, और जो अपानवायु कुपित होवे तो अन्नकी आदिमें औषधको देना, और समान वायु कुपित होवे तो भोजनके मध्यमें औषधको देना ॥ ३८ ॥
व्यानेऽन्ते प्रातराशस्य सायमाशस्य तत्तरे ॥ ग्रासग्रासान्तयोः प्राणे प्रदुष्टे मातरिश्वनि ॥ ३९ ॥
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