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अष्टाङ्गहृदये
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विकारान् साधयेच्छीघ्रं क्रमाल्लङ्घनबृंहणैः ॥ वायोरन्यत्र तज्जास्तु तैरेवोत्क्रमयोजितैः ॥ २९ ॥
विकारोंको क्रमसे लंवन और बृंहण कर्मोकर के वैद्य शीघ्र साधित करे, अर्थात् वायुको त्याग-कर वृद्धिसे उपजे विकारोंको लंघनोंकरके औरशयसे उपजे विकारोंको बृंहण पदार्थोंकर के साधै, और वायुसे उपजे विकारोंको फिर तिस लंघन और बृंहण पदार्थोंको उत्क्रममें योजित कर चिकित्सा करै ॥ २९॥
विशेषाद्रक्तवृद्धयुत्थान् रक्तस्रुतिविरेचनैः ॥
मांसवृद्धिभवान्रोगाञ्शस्त्रक्षाराग्निकर्मभिः ॥ ३० ॥
विशेषतासे की वृद्धिसे उपजे विकारोंको रक्तका निकासना और विरेचन करके चिकित्सितः करै, और मांसकी वृद्धिसे उपजे रोगोंको शस्त्र - खार - अग्निकर्मसे चिकित्सित करे ॥ २० ॥ स्थौल्य काश्योपचारेण मेदोजानस्थिसंक्षयात् ॥
जातान् क्षीरनृतैस्तिक्तसंयुतैर्वस्तिभिस्तथा ॥ ३१ ॥
मेदकी वृद्धिसे उपजे रोगोंको स्थूलपनेकी चिकित्सा करके, और मेदके क्षयसे उपजे रोगोंको कार्यकी चिकित्सा करके चिकित्सित करे, और अस्थि के संक्षय से उपजे रोगों को दूध वृत और तिक्त रसोंकर के संयुक्त बस्तिकम करके चिकित्सित करे ॥ ३१ ॥
विड्वृद्धिजानतीसारक्रियया विट्क्षयोद्भवान् ॥
मेषाजमध्य कुल्मापयवमाषद्वयादिभिः ॥ ३२ ॥
विष्टाकी वृद्धिसे उपजे रोगोंको अतीसारको क्रिया करके चिकित्सित करे, और विष्ठाके क्षयस उपजे रोगोंको मेंढा और बकराका मध्यभाग - कुल्माष - जब उडद - रानउडद करके चिकित्सित:
करै ॥ ३२ ॥
मूत्रवृद्धिक्षयोत्थांश्च महकृच्छ्रचिकित्सया ॥
व्यायामाभ्यञ्जनस्वेदमयैः स्वेदक्षयोद्भवान् ॥ ३३ ॥
मूत्रकी वृद्धिके क्षयसे उपजे रोगोंको प्रमेह और मूत्रकी चिकित्सा करके चिकित्सित करे, और स्वेद के क्षयसे उपजे रोगोंको व्यायाम - अभ्यंग - पसीना -मदिरा करके चिकित्सित करै ॥ ३३ ॥
स्वस्थानस्थस्य कायाग्नेरंशा धातुषु संश्रिताः ॥
तेषां सादातिदीप्तिभ्यां धातुवृद्धिक्षयोद्भवः ॥ ३४ ॥
अपने स्थान में स्थित हुये कायानिक अंश धातुओं में स्थित है, और तिन अंशों की शिथिलता और दात करके धातुओंकी वृद्धि और क्षयका संभव होता है ॥ ३४ ॥
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