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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ११७ )
सूत्रकी क्षीणता में वर्णसे रहित अथवा रक्तयुक्त मूत्रको कष्टसे मूतता है, पसीनाकी क्षीणता में - रोमोंकी युति - रोमोंकी स्तब्धता - त्वचा का फटना ये उपजते हैं ॥ २२ ॥ मलानामतिसूक्ष्माणां दुर्लक्ष्यं लक्षयेत्क्षयम् ॥ स्वमलायन संशोपतोदान्यवलाघवैः ॥ २३ ॥
अतिसूक्ष्म मोंका स्थान संशोष-तोद - शून्यपना- लाघवता इन्होंकरके क्षय दुर्लक्ष्य अर्थात् दुःख करके जाननेको योग्य है यह कठिनसे जाना जाता है ॥ २३ ॥ दोषादीनां यथास्वं च विद्याद्वृद्धिक्षयो भिषक ||
क्षयेण विपरीतानां गुणानां वर्द्धनेन च ॥ २४ ॥
कुशलवैद्य विपरीत गुणोंके क्षय करके और योग्य गुणोंकी वृद्धि करके यथायोग्य दोष आदियोंके वृद्धि और क्षयको जाने ॥ २४ ॥
वृद्धिं मलानां सङ्गाच्च क्षयं चातिविसर्गतः ॥
मलोचितत्वाद्देहस्य क्षयो वृद्धेस्तु पीडनः ॥ २५ ॥
मलोंके उनमान माफिक निकलनेसे वृद्धि होती है, और मां के अतिप्रवृत्ति अर्थात् अति निकसनेंसे क्षय होता है, और देहको मलके योग्य होने से मटकी वृद्धि के निसवत मलका क्षय देहमें पीड देता है ॥ २९ ॥
तत्रास्थान स्थितो वायुः पित्तं तु स्वेदरक्तयोः ॥ श्लेष्मा शेषेषु तेनैषामाश्रयाश्रयिणां मिथः ॥ २६ ॥
तिन वातआदिकोंके मध्यमें अस्थियों में बायुकी स्थिति है, पसीना और रक्तमें पित्तकी स्थिति हैं, शेष रहे रस-मांस-मेद - मजा - वीर्य-मूत्र - विष्टा इन आदियों में कफकी स्थिति है, इस वास्ते आश्रय और आश्रयियों का आपसमें संबंध है, अर्थात् जो आश्रयका वर्द्धन होवै तो आश्रयीकाभी बर्द्धन होता है ऐसे जानना ॥ २६ ॥
यस्य तदन्यस्य वर्द्धनक्षपणौषधम् ॥
अस्थिमारुतयोर्नैवं प्रायो वृद्धिर्हि तर्पणात् ॥ २७ ॥
जो एकका वर्द्धन तथा क्षय होता है तो अन्य अर्थात् आश्रयीकाभी होता है और प्रायता से तर्पणकरके अस्थि और वातकी वृद्धि नहीं होती है ॥ २७ ॥
श्लेष्मणानुगता तस्मात् संक्षयस्तद्विपर्ययात् ॥ वायुनानुगतोऽस्माच्च वृद्धिक्षयसमुद्भवान् ॥ २८ ॥
क्योंकि वृद्धि कफके संग अनुगत होरही हैं, और बहुवासे लंघन आदिकरके संक्षय होता है, क्योंकि यह संक्षय वायुके संग अनुगत होरहा है, इस कारण से वृद्धि और क्षयसे उत्पन्न हुये ॥ २८ ॥
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