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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । पूर्वो धातुः परं कुर्यादृद्धः क्षीणश्च तद्विधम् ॥
दोषा दुष्टा रसैर्धातून् दूषयन्त्युभये मलान् ॥ ३५॥ बढाहुआ रसधातु रक्तधातुको बढाता है, और क्षीण हुआ रसधातु रक्तधातुकोभी क्षीण करता है, ऐसा पूर्ववाला धातु परले धातुको वृद्धि और क्षयसे युक्त करता है, और मधुरआदि रसोंकरके दुष्ट हुये दोष धातुओंको दूषित करते हैं,और दुष्टहुये दोष और धातु मलोंको दूषित करते हैं३५॥
अधो द्वे सप्त शिरसि खानि स्वेदबहानि च ॥
मला मलायनानि स्युर्यथास्वं तेष्वतो गदाः॥३६॥ शरीरके अधोभागमें लिंग और गुदा ये दो छिद्र हैं, और शिरमें दो नेत्र-दो कान-दो नासिका मुख-ऐसे ७ छिद्र हैं, और रोमकूपी छिद्र हैं, ये सब मलोंके स्थान हैं, इन्होंको दोष दूषित करदेते हैं, इसवास्ते जो जिसके योग्य हो तैसे ही रोग उपजते हैं ॥ ३६ ॥
ओजस्तु तेजो धातूनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम् ॥
हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम् ॥ ३७॥ रससे लेकर वर्पितक जो सात धातु हैं इनोंका परमतेज बल कहा है और यह हृदयमें स्थित है और सकल शरीरव्यापी है और देहकी स्थितिमें निबंधनरूप है ।। ३७ ।।
स्निग्धं सोमात्मकं शुद्धमीषल्लोहितपीतकम् ॥
यन्नाशे नियतं नाशो यस्मिस्तिष्ठति तिष्ठति ॥३८॥ स्निग्ध है, सोमात्मक है, शुद्ध है, कछुक रक्त तथा पीत रंगवाला जो बल है इसके नाशमें शरीरका निश्चय नाश हो जाता है, और इसकी स्थितिमें शरीरकी स्थिति रहती है ॥ ३८ ॥
निष्पद्यन्ते यतो भावा विविधा देहसंश्रयाः॥
ओजः क्षीयेत कोपक्षुद्ध्यानशोकश्रमादिभिः॥३९॥ और जिस बलसे देहके संश्रयरूप अनेक प्रकारके भाव निष्पादित होते हैं, वह बल क्रोधमुख ध्यान-शोक-परिश्रम आदिकरके नाशको प्राप्त होता है ॥ ३९ ॥
बिभेति दुर्बलोऽभीक्ष्ण ध्यायति व्यथितेन्द्रियः ॥
विच्छायो दुर्मना रूक्षो भवेत् क्षामश्च तत्क्षये ॥४०॥ वीर्यके क्षयमें दुर्बल निरन्तर भयको प्राप्तहोताहै अतिदुर्बल इन्द्रिय ध्यानकरताहै और छायासे रहित दुःखितमनवाला होताहै क्षयमें क्षीण और रूखा होजाताहै ॥ ४०॥
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