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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । लघुरूक्षोष्णतीक्ष्णञ्च तदेवं मतमष्टधा॥
चरकस्त्वाह वीयं तद्येन या क्रियते क्रिया ॥ १३ ॥ हलका-रूखा-गरम-तीक्ष्ण-आठ प्रकारका वीर्य्य माना है,चरकमुनिनें कहा है जिस स्वभाव करके जो कर्म निष्पादित किया जाता है वह वीर्य कहाता है ॥ १३ ॥
नावीयं कुरुते किञ्चित्सर्वा वीर्य्यकृता हि सा॥
गर्वादिष्वेव वीर्य्याख्या तेनान्वर्थेति वर्ण्यते॥१४॥ क्योंकि जो वीर्य्य नहींहै तो कुछभी नहीं होसकता है, इस कारण वीर्य्यकी करी सब क्रिया है, और पूर्वोक्त भारीपन आदिमें वीर्यनामक क्रिया है, तिस करके अन्वर्थमें वर्णन करते हैं अर्थात् भारीपन आदिमें वीर्य्यक्रिया है, और रस-विपाक-प्रभावमें नहीं ।। १४ ॥
समग्रगुणसारेषु शक्त्युत्कर्षाववर्तिषु ॥
व्यवहाराय मुख्यत्वाइह्वग्रग्रहणादपि ॥१५॥ समग्र गुणोंमें चिरकालतक स्थितिवाले भारीपन आदि हैं, और भारी आदि गुणोंके व्यवहार के अर्थ मुख्यपना होनेसे अन्यगुणोंसे भारी आदि गुण प्रधानभूत हैं, और बहुतसे रसआदि गुरु द्रव्य अर्थात् भारी आदि द्रव्योंकरके गृहीत हो रहेहैं ॥ १५ ॥
अतश्च विपरीतत्वात्सम्भवन्त्यपि नैव सा ॥
विवक्ष्यते रसायेषु वीर्य गुर्वादयो ह्यतः॥ १६॥ इस कारणसे विपरीतपनेसे स्थित होनेसे वह वीर्यसंज्ञा संभवितभी होती है परन्तु रस आदिकोंमें विपरीतभाव होनेसे विवक्षित नहीं है, इस कारण गुरुआदि द्रव्यही वीर्य है और रस आदि नहीं ॥ १६ ॥
उष्णं शीतं द्विधैवान्ये वीर्यमाचक्षतेऽपि च॥
नानात्मकमपि द्रव्यमग्नीषोमौ महाबलौ॥ १७ ॥ कोई वैद्य गरम और शीतल भेदों करके वीर्यको दो प्रकारसे कहते हैं, और अनेक प्रकारके स्वभावोंवाला द्रब्य महाबलवाले अग्नि और सोमको ॥ १७ ॥
व्यक्ताव्यक्तं जगदिव नातिकामति जातुचित् ॥
तत्रोष्णं भ्रमतृग्लानिस्वेददाहाशुपाकिताः ॥१८॥ कदाचित्भी उल्लंधित नहीं करते हैं जैसे अनेक स्वभावोंवाला जगत् व्यक्त और अव्यक्तको नहीं उल्लंघता है, और तिन दोनोंमें गरम द्रव्य भ्रम-तृषा-ग्लानि-पसीना-दाह-शीघ्रपाकपना १८।।
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