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(१०४)
अष्टाङ्गहृदयेशमञ्च वातकफयोः करोति शिशिरं पुनः॥
ह्रादनं जीवनं स्तम्भं प्रसादं रक्तपित्तयोः॥ १९॥ वात और कफकी शांतिको करता है, और शीतल द्रव्य आनंद-जीवन स्तंभरक्त और पित्तकी स्वच्छताको करता है ॥ १९ ॥
जाठरेणाग्निना योगाद्यद्यदेति रसान्तरम् ॥
रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः ॥ २०॥ जठराग्नि करके जो जरणकालमें रसोंका जो रसविशेष उपजता है, परिणामके अंतमें वह विपाक कहाता है ॥ २० ॥
स्वादुः पटुश्च मधुरमम्लोऽम्लं पच्यते रसः॥
तिक्तोष्णककषायाणां विपाकः प्रायशः कटुः॥ २१॥ स्वादु मधुर गुड आदि और सलोना सैंधा आदि रस मधुर भावको प्राप्त होकर पकता है, और खट्टा रस दधिकांजीआदि खट्टेपनेको प्राप्त होकर पकता है, और विशेषतासे तिक्त-उष्णकषाय रसोंका विपाक कटु होता है कसैला रस मधुर होकरभी पकताहै सोंठ पीपल आदिकाभी मधुर होकर पकता है ॥ २१ ॥ . रसैरसौ तुल्यफलस्तत्र द्रव्यं शुभाशुभम् ॥
किञ्चिद्रसेन कुरुते कर्म पाकेन वापरम् ॥ २२॥ जीभके विषयवाले मधुर आदि रसोंके समान फलवाले विपाकसे मिलनेके योग्य मधुर आदि रस है, और तिन रस-वीर्य विपाक-मध्यमें कोईक द्रव्य सत् और असत् कर्मको करता है, जैसे मधुर रस कषायपनेकरके पित्तको शांत करता है, और कोईक द्रव्य विधाक करके कर्मको करता है, जैसे मधुर रस कटुविपाकता करके कफको नाशता है ॥ २२ ॥
गुणान्तरेण वीर्येण प्रभावेणैव किञ्चन ॥ • यद्यद्रव्ये रसादीनां बलवत्त्वेन वर्त्तते ॥२३॥
और कोईक द्रव्य गुणांतर करके कर्मको करता है, जैसे अम्लरूप कांजीकफको शांत करती है, और कोईक द्रव्य वीर्यकरके कर्मको करता है जैसे कषाय तिक्तरूप बृहत् पंचमूल बातको जीतता है, और गरमपनेसे पित्तको नहीं, और कोईक द्रव्य प्रभाव करके कर्मको करता है, जैसे अम्लोष्णरूप मदिरा खारको बढाती है, और रस-वीर्य-विपाक-प्रभावके-मध्यमें रस आदि वस्तु अर्थात् रस वीर्य व विपाक व प्रभाव यह बलिष्टपने करके जिस द्रव्यमें वर्ते ॥ २३॥
अभिभयेतरांस्तत्तत्कारणत्वं प्रपद्यते॥ विरुद्धगुणसंयोगे भूयसाल्पं हि जीयते ॥ २४॥
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