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अष्टाङ्गहृदये
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सात्म्यासात्म्यविकाराय जायते सहसान्यथा ॥ क्रमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचिता गुणाः ॥ ४९ ॥
विकारोंको उपजा देता है, और पूर्वोक्त क्रमकरके क्षयको प्राप्त हुये दोष और पूर्वोक्त क्रमकरके वृद्धिको प्राप्त हुये गुण || ४९ ॥
नाप्नुवन्ति पुनर्भावमप्रकम्प्या भवन्ति च ॥ अत्यन्तसन्निधानानां दोषाणां दूषणात्मनाम् ॥ ५० ॥
यथासंख्यसे दोष फिर नहीं उपजते हैं, और स्थिररूप गुण रहते हैं, और अत्यंत सन्निधानवाले और दूषित आत्मावाले दोषोंके ॥ २० ॥
अहितैदूषणं भूयो न विद्वान कर्तुमर्हति ॥
आहारशयनब्रह्मचर्यैर्युक्त्या प्रयोजितैः ॥ ५१ ॥
अहितभोजन आदिकरके दूषणकरनेको विद्वान् मनुष्य योग्य नहीं है, और युक्तिकर के प्रयुक्त किये भोजन - शयन - ब्रह्मचर्य करके ॥ ५१ ॥
शरीरं धार्यते नित्यमागारभित्र धारणैः ॥
आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते ॥ ५२ ॥
नित्यप्रति शरीर धारित कियागया है जैसे स्तंभोंकरके स्थान - और तिन्होंमें भोजनका प्रकरण ऋतुचर्या में प्रकाशित किया हैं, अन्य तहां २ उचिकित्सा आदि ग्रंथकार वर्णन करेंगे ॥५२॥ निद्रायतं सुखं दुःखं पुष्टिः कार्यं बलाबलम् ॥
वृपता क्लीवता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च ॥ ५३ ॥
सुख-दुःख - पुष्टि - दुबलापन - वल - अबल-वृषपना - नपुंसकपना - ज्ञान - अज्ञान ये सब नींद के आधीन हैं परंतु जीवन नींदके आधीन नहीं है ॥ ५३ ॥
अकालेऽतिप्रसंगाच्च न च निद्रा निषेविता ॥
सुखायुषी परा कुर्य्यात्कालरात्रिरिवापरा ॥ ५४ ॥
अकालमें सेवित करी और अति सेवितकरी और कछुक सेवितकरी ऐसी नींद सुख और आयुको नाशती है, जैसे दूसरी कालरात्रि ॥ ५४ ॥
रात्रौ जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा ॥
अरुक्षमनभिग्यन्दि त्वासीनप्रचलायितम् ॥ ५५ ॥
रात्रिमें जागना रूक्ष है, और दिनमें शयन करना स्निग्ध है, और बैठे हुयेका जो प्रचलन है वह न तो रूक्ष है और न कफको करता है ॥ ५५ ॥
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