________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
. सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८७) ऐरण्डेनाग्निना सिद्धास्तत्तैलेन विमूर्च्छिताः॥
हारीतमांसं हारिद्रशलकप्रोतपाचितम् ॥ ४३॥ अरंडकी अग्निकरके सिद्ध और अरंडके तेल करके मूर्छित किये जावे तो शीघ्र मनुष्यको मारदेते हैं और हारीत अर्थात् तिलगरू पक्षीके मांसको हारिद्र वृक्षके शूलमें प्राप्तकर पकावै ॥४३॥
हारिद्रवह्निना सद्यो व्यापादयति जीवितम् ॥
भस्मपांशुपारध्वस्तं तदेव च समाक्षिकम् ॥४४॥ और पकाने के समय तिसके नीचे हारिद्रवृक्षकी अग्निको जलावै तौ यह मांस मनुष्यको शीघ्र मार देता है, और वही हारीतपक्षीका मांस राख और धूलीकरके परिध्वस्त और शहदसे संयुक्त विरुद्धताको प्राप्त होजाताहै ।। ४ ४ ॥
यत्किञ्चिद्दोषमुक्तस्य न हरेत्तत्समासतः॥
विरुद्धं शुद्धिरत्रेष्टा शमो वा तद्विरोधिभिः ॥४५॥ जो कछु अन्न पान औषध दोषको उक्लोशत कर और स्थानसे अच्छीतरह चलाकर बाहिर नहीं निकासै वह समाससे विरुद्ध है.यहां शुद्धि वांछित है अथवा तिसके विरोधी पदार्थोकरके शमन करना बांछित है ॥ ४५ ॥
द्रव्यस्तैरेव वा पूर्व शरीरस्याभिसंस्कृतिः॥
व्यायामस्निग्धदीप्ताग्निवयःस्थबलशालिनाम् ॥४६॥ अथवा विरोधिक और कुपित हुये दोपोंके प्रति प्रतिपक्षरूप द्रव्योंकरके जो प्रथम शरीरका • संस्कार है वही विरुद्धभोजनके करनेमेंभी श्रेष्ठ है और कसरतबाले--स्निग्ध-दीप्तअग्निवाले अच्छी अवस्थामें स्थित-बलशाली-इन्होंको ॥ ४६ ॥ .
विरोध्यपि न पीडायै सात्म्यमल्पं च भोजनम् ॥
पादेनापथ्यमभ्यस्तं पादपादेन वा त्यजेत् ॥४७॥ विरोधी अन्नभी अभ्याससे प्रकृति माफिक होकर और अल्प मात्राकरके संयुक्त हुआ पीडाको नहीं करता है और जो पथ्य भोजनका अभ्यास होरहा होवे तो चतुर्थांशकरके अपथ्यको त्यागै, और जबभी दोषकारी मालुम होवे तो षोडशांश अर्थात् सोलमें हिस्सै करके त्यागै ॥ ४७ ।।
निषेवेत हितं तद्वदेकद्विव्यन्तरीकृतम् ॥
अपथ्यमपि हि त्यक्तं शीलितं पथ्यमेव वा ॥४८॥ और तैसे ही पथ्यकोभी चतुर्थीशकरके तथा षोडशांशकरके सेवै, परंतु एक-दो तीनऐसे अन्न कालोंकरके व्यवधान देकर पथ्यको सेवै, और अतिवेगसे अपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवनभी ॥ ४८॥
For Private and Personal Use Only