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(८६)
'अष्टाङ्गहृदयेअन्यपात्रमें सिद्धी कीहुई और रुचिके योग्यभी बनीहुई मकोह जो रात्रिमात्र धरी रहै तो खानेके योग्य नहीं है. और जिस तेलमें मछलियाँ भूनी जाबैं तिस तेलमें साधित पपिलियोंको त्यागै ॥ ३६ ॥
कांस्य दशाहमुषितं सर्पिरुष्णं त्वरुष्करे ॥
भासो विरुध्यते शूल्यः कम्पिल्लस्तक्रसाधितः ॥ ३७॥ कांसेके पात्रमें दशरात्रितक धराहुआ वृत बिगड जाता है तिसको और भिलावाके साधनमें गरम अन्न और पानको त्याग और शूलमें संस्कृत किया भासपक्षी अर्थात् गोष्ठ मुरगा और तक्रमें सिद्ध किया कंपिल्ला ये दोनों विरुद्ध होजातेहैं । कम्पिल्ला-कवीला ॥ ३७ ॥
ऐकध्यं पायससुराकृशराः परिवर्जयेत् ॥
मधुसर्पिर्वसातैलपानीयानि द्विशस्त्रिशः ॥ ३८॥ खीर-मदिरा-कृशरा-इन्होंको एककालमें वर्ज देवै और शहद-वृत-वसा-तेल-पानी-ये सब दो दो व तीन तीन ॥ ३८ ॥
एकत्र वा समांशानि विरुध्यन्ते परस्परम् ॥
भिन्नांशे अपि मध्वाज्ये दिव्यवार्यनुपानतः ॥ ३९॥ वा सब एक जगह ये समभागवाले आपसमें विरुद्ध है, और भिन्नभागोंवाले शहद और वृतमें अनुपानसे दिव्यपानी विरुद्ध है ॥ ३९॥
मधुपुष्करबीजं च मधुमैरेयशार्करम् ॥
मन्थानुपानःक्षरेयो हारिद्रः कटुतैलवान् ॥ ४०॥ शहद और कमलका बीज एकजगहमें विरुद्ध है. और मुनक्काका आसव-खजूरका आसवखांडका आसव-येभी एकजगहमें विरुद्धहैं, और मंथ है अनुपान जिसका ऐसा क्षैरेय अर्थात् दूधका पदार्थ और कटुतेलमें भुनाहुआ हारिद्रशाक ये दोनों विरुद्ध हैं ॥ ४० ॥
उपोदकातिसाराय तिलकल्केन साधिता ॥
वलाका वारुणीयुक्ता कुल्माषैश्च विरुध्यते ॥४१॥ तिलोंको कल्क करके साधितकरा पोईशाक अतिसारका करनेवाला है, और वलाकापक्षीका मांस प्रस्यन्न मदिरा और नहीं अति स्वेदितकिये मूंगआदिके संग विरोधित हैं ॥ ४१ ॥
भृष्टा वराहवसया सैव सद्यो निहन्त्यसून् ।
तद्वत्तित्तिरिपत्राट्यगोधालावकपिञ्जलाः॥४२॥ शूकरकी वसामें भूना हुआ बलाकाका मांस मनुष्यको शीघ्र मारदेता है, और तीतर पतंग-- गोधा-लावा-कपिंजल ये सब ॥ ४२ ॥
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