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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८९) ग्रीष्मे वायुचयादानरौक्ष्यराव्यल्पभावतः ॥
दिवास्वप्नो हितोऽन्यस्मिन्कफपित्तकरो हि सः ॥ ५६ ॥ ग्रीष्मऋतुमें वायुका संचय होता है और आदान करके रूक्षपना होता है और नींदकी समाप्तिके अयोग्य रात्रियां होती हैं इसवास्ते दिनमें शयनकरना हित है और अन्य ऋतुओंमें दिनका शयन कफ और पित्तको करता है ।। ५६ ॥
मुक्त्वा तु भाष्ययानाध्वमद्यस्त्रीभारकर्मभिः॥
क्रोधशोकभयैः क्लान्ताश्वासहिध्मातिसारिणः॥ ५७ ॥ .. परंतु भाषण-अश्वआदि असवारी-मार्ग-मदिरा-स्त्री-भार क्रोध शोक-भय इन्होंकरके लांत और श्वास--हिचकी-अतिसार इन रोगोंवाले ॥ १७ ॥
वृद्धवालावलक्षीणक्षततृशूलपीडितान् ।
अजीर्णाभिहतोन्मन्तान् दिवास्वप्नोचितानपि ॥५८ ॥ वृद्ध-बालक-बलसे रहित-क्षीण-भूख और तृषाले पीडित-अर्णि करके अभिहत-उन्मत्त दिनमें शयनका अभ्यासवाले इन सबोंको दिनमें शयन करना योग्य है ॥ ५८ ॥
धातुसाम्यं तथा ह्येषां श्लेष्मा चाङ्गानि पुष्यति ॥
बहुमेवःकफाः स्वप्युः स्नेहनित्याश्च नाहनि ॥ ५९ ॥ वयोंकि दिनमें शयन करनेसे इन्होंकी धातुओंकी समता होती है, और इन्होंके अंगको कफ पुष्ट करता है, और बहुत मेद तथा बहुत कफवाले और स्नेहको निन्य धारण करनेवाले ऐसे मनुष्य दिनमें शयनको करै नहीं ॥ ५९॥
विपातः कण्ठरोगी च नैव जाल निशास्वपि ॥
अकालशयनान्मोहज्वरस्तमित्यपीनसाः॥ ६०॥ विषसे पीडितको और कंठरोगीको रत्रिमेंभी शयनकरने देवे नहीं, और अकालमें शयनसे मोहज्वर अंगोंका निरुत्साह-पीनस ॥ ६ ॥
शिरोरुक्शोफहल्लासस्रोतोरोधाग्निमन्दताः॥
तत्रोपवासवमनस्वेदनावनमौषधम् ॥ ६१॥ . शिरमें पीडा-शोजा-हृलास-लोतोंका रोध--मंदाग्नि ये रोग-उपजते हैं, तहां उपवास-वमन स्वेदन-नस्य–इन्होंके द्वारा औषधको ॥ ६१ ॥
योजयेदतिनिद्रायां तीक्ष्णं प्रच्छर्दनाञ्जनम् ॥
नावनं लङ्घनं चिन्तां व्यवायं शोकभीक्रुधः ॥६२॥ योजित करे, और रात्रिमें तीक्ष्णरूप वमन और अंजन और नस्य-लंघन-चिंता-मैथुनशोक-भय-क्रोध ॥ ६२ ॥
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