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(८४)
अष्टाङ्गहृदयेविन्दुभिश्चाचयोऽङ्गानां पक्वाशयगते पुनः ॥
अनेकवर्ण वमति मूत्रयत्यतिसार्यते ॥ २३॥ - और अनेक प्रकारको बिंदुवों करके शरीरके चारोतर्फ अंगोंकी रचना होती है अर्थात् काले
चकत्ते पडजाते हैं फिर जब वही विषदूषित अन्न पक्काशयमें जाके प्राप्त होवे, तब मनुष्य वमन करता है और मूत्र करता है और अतिसारको प्राप्त हो जाता है ॥ २३॥
तन्द्रा कृशत्वं पाडुत्वमुदरं वलसंक्षयः॥
तयोर्वान्तविरिक्तस्य हरिद्रे कटभी गुडम् ॥ २४ ॥ और तन्द्रा-कृशपना-पांडुपना-उदररोग-बलका क्षय-उपजते है और इन दोनों आमाशय और पक्वाशयमें प्राप्त विषदूषित अन्न वालोंको जब वमन और अतिसार लगचुकै तब हलदी-दारुहलदी-मालकांगणी-गुड ॥ २४ ॥
सिन्दुवारितनिष्पाववाष्पिकाशतपर्विकाः ।।
तण्डुलीयकमूलानि कुक्कुटाण्डमबल्गुजम् ॥२५॥ समालू-हिंगपत्री-दूब-चौलाईकी जड- मुरगाका अंडाके समान चावल बावची ॥ २५ ॥
नावनाञ्जनपानेषु योजयेद्विषशान्तये ॥
विषभुक्ताय दद्याच्च शुद्धायोर्द्धमधस्तथा ॥ २६ ॥ इन्होंको नस्य-अंजन-पान-इन्होंके द्वारा योजित करे तो विषकी शांति होजाती है और चमन तथा विरेचनकरके शुद्धहुये विषको भोजन करनेवाले मनुष्य के अर्थ ॥ २६ ॥
सूक्ष्मं ताम्ररजः काले सक्षौद्रं हृहिशोधनम् ॥
शुद्धे हृदि ततः शाणं हेमचूर्णस्य दाश्यत् ॥ २७ ॥ अति सूक्ष्मरूप तांबाके चूर्णमें शहद मिलाकर समयपर देवै, यह हृदयको शोधता है और जब हृदयकी शुद्धि होजावे तब ४ मासेभर सोनाके चूर्णको देवै ॥ २७ ॥
न सज्जते हेमपाङ्गे पद्मपत्रेम्बुवद्विषम् ॥ __ जायते विपुलं चायुर्गरेप्येष विधिः स्मृतः ॥ २८ ॥ क्योंकि सोनाको खानेवाले मनुष्यके अंगोंमें विष नहीं ठहरताहै, जैसे कमलके पत्तेपै पानी, और आयु बढजाती है ऐसे यह विधि विषमें कही है ॥ २८ ॥
विरुद्धमपि चाहारं विद्याद्विषगरोपमम् ॥
आनूपमामिषं माषक्षौद्रक्षीरविरूढकैः ॥ २९ ॥ विरुद्ध भोजनकोभी विष और उपविषकी तरह जानना, और अनूपदेशका मांस उडद-शहददूध-अंकुरित अन्न ॥ २९ ॥
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