________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । कपोतपरभृदक्षचक्रवाका जहत्यसून् ।
उद्वेगं याति मार्जारः शकृन्मुञ्चति वानरः॥१६॥ . . और कपोत-काक-मुरगा-चकवा ये प्राणोंको त्याग देतेहैं, और बिलाव उद्वेगको प्राप्त हो जाता है और वानर विष्टाको त्यागदेता है ।॥ १६ ॥
हृष्येन्मयूरस्तदृष्टा मन्दतेजो भवेद्विषम् ॥
इत्यन्नं विषवज्ज्ञात्वा त्यजेदेवं प्रयत्नतः ॥ १७॥ और तिस विषदूषित द्रव्यको देखकर मोर आनंदित होता है, और मोरके देखनेसे मंदतेजवाला विष होजाता है, ऐसे विषवाले अन्नको जानकर बुद्धिमान् मनुष्य यत्नसे त्यागै ॥ १७ ॥
यथा तेन विपद्येरन्नपि न क्षुद्रजंतवः ॥
स्पृष्टे तु कण्डूदाहोषाज्वरार्तिस्फोटसुप्तयः॥१८॥ परंतु ऐसी विधिसे त्यागै कि जिसकरके क्षुदजीवभी नाशको प्राप्त नहीं होसकै और विपकरके दूषित अन्नका हाथ और पैर आदिमें स्पर्श हो जावै तो खाज-दाह प्रादेशिक अर्थात् जिसदेशमें । स्पर्श होवै तहांही दाह-ज्वर फुन्सी-शुनबहरी ॥ १८ ॥
नखरोमच्युतिः शोफः सेकाद्या विषनाशनाः ॥
शस्तास्तत्र प्रलेपाश्च सेव्यचन्दनपद्मकैः॥ १९॥ नख और रोमोंका गिरना-शोजा-ये सब उपजते हैं, तहां विषको नाश करनेवाले सक आदिका देना उचित है, और कालावाला चंदन पद्मक अर्थात् पद्माख ॥ १९ ॥
ससोमवल्कतालीशपत्रकुष्टामृतानतैः ॥
लालाजिह्वौष्ठयोर्जाड्यमूषा चिमिचिमायनम् ॥ २०॥ सफेदखैर-तालीशपत्र--कूट-गिलोय-तगर-इन्होंकरके किये लेप श्रेष्ट हैं, और विषदूषित अन्नको मुखमें प्राप्त होनेसे जीभ से लार गिरती है और ओष्ठकी जडता मुखमें दाह चिमचिमाहट ॥ २० ॥
दन्तहर्षो रसाज्ञत्वं हनुस्तम्भश्च वक्रगे ॥
सेव्यायैस्तत्र गण्डूषाः सर्वं च विषजिद्धितम् ॥२१॥ दंतहर्ष-रसका अज्ञान-हनुस्तंभ-ये रोग उपजते हैं. तहां कालावाला आदि पूर्वोक्त. द्रव्योंकरके गंडूषधारण अर्थात् कुल्लाकरना और विषको जीतनेवाला पदार्थ हित है ॥ २१ ॥
आमाशयगते स्वेदमछाध्मानमदभ्रमाः॥
रोमहर्षों वमिर्दाहश्चक्षुर्हृदयरोधनम् ॥ २२ ॥ विषदूषित अन्न आमाशयमें प्राप्त होजावे तो पसीना-मूछी-आध्मान-मद-भ्रम रोमहर्ष'छर्दि-दाह-नेत्र और हृदयका रोध ॥ २२ ॥
For Private and Personal Use Only