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(१००४)
अष्टाङ्गहृदयेअव्यक्तवर्णः प्रचलः किञ्चित्कंडूरुजान्वितः॥ मकडीके विषसे उपजा दंश आधे दिनतक लक्षित नहीं होताहै, पीछे पहिलेही दिनमें सूईके चभकेकी तरह प्रकाशित होताहै ॥ ६१ ॥ और अव्यक्त वर्णवाला और चलायमान और कछुक खाज और पीडासे संयुक्त होताहै ।।
द्वितीयेऽभ्युनतोऽन्तेषु पिटकैरिव वा चितः॥१२॥
व्यक्तवर्णो तनोर्मध्ये कण्डूमान्यन्थिसन्निभः॥ और दूसरे दिनमें सबतर्फसे उन्नतहुये किनारोमें फोंडोंकी तरह व्याप्त ॥ १२ ॥ और प्रकट वर्णवाला मध्यमें नतहुआ खाजसे संयुक्त और ग्रंथिके सदृश होताहै ॥
तृतीये सज्वरो रोमहर्षकृद्रक्तमण्डलः॥६३ ॥
शरावरूपस्तोदाढयो रोमकूपेषु सस्त्रवः॥ और तीसरे दिनमें ज्वरसे संयुक्त और रोमांचको करनेवाला और रक्तमंडलवाला ॥ ६३ ।। शरावके आकार अधिक पीडासे संयुक्त और रोमकूपोंमें स्त्रावसे संयुक्त होताहै ॥
महांश्चतुर्थे श्वयथुस्तापश्वासभ्रमप्रदः॥६४॥ और चौथे दिनमें संताप श्वास भ्रमको देनेवाला अत्यंत शोजा होताहै ॥ ६४ ॥
विकारान्कुरुते तांस्तान्पञ्चमे विषकोपजान् ॥ पांचमें दिनमें विषके कोपसे उपजे तिनतिन पूर्वोक्त विकारोंको करताहै ॥
___ षष्ठे व्याप्नोति मर्माणि सप्तमे हन्ति जीवितम् ॥६५॥ और छठेदिनमें मोमें व्याप्त होताहै और सातमें दिनमें जीवको नाशताहै ॥ १५ ॥
इति तीक्ष्णं विषं मध्यं हीनं च विभजेदतः॥ ऐसे तीक्ष्ण विष मध्य और हीन निरूपित करके लक्षितकरै ॥
एकविंशतिरात्रेण विषं शाम्यति सर्वथा ॥६६॥ और इक्कीस रात्रिमें सब प्रकारसे विष शांत होजाताहै ॥ १६ ॥
अथाशु लूतादष्टस्य शस्त्रेणादशमुद्धरेत् ॥
दहेच जाम्बवौष्ठाद्यैर्न तु पित्तोत्तरं दहेत् ॥ ६ ॥ पीछे मकडीसे दष्टहये मनुष्यके दंशको शस्त्रसे उद्धरितकरै और जांबवौष्ठ आदिसे दग्धकरै और पित्तकी अधिकतावालेको दग्ध नहींकरै ।। ६७ ॥
कर्कशं भिन्नरोमाणं मर्मसंध्यादिसंश्रितम् ॥
प्रसृतं सर्वतो दशं नच्छिन्दीत दहेन्न च ॥ ६८॥ कठोर और भिन्न रोमोंवाले मर्म और संधि आदिमें संश्रित और सब तर्फको फैले हुए दंशको नहीं काटे, दग्धकरै नहीं ॥ ६८ ॥
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