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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१००४) अष्टाङ्गहृदयेअव्यक्तवर्णः प्रचलः किञ्चित्कंडूरुजान्वितः॥ मकडीके विषसे उपजा दंश आधे दिनतक लक्षित नहीं होताहै, पीछे पहिलेही दिनमें सूईके चभकेकी तरह प्रकाशित होताहै ॥ ६१ ॥ और अव्यक्त वर्णवाला और चलायमान और कछुक खाज और पीडासे संयुक्त होताहै ।। द्वितीयेऽभ्युनतोऽन्तेषु पिटकैरिव वा चितः॥१२॥ व्यक्तवर्णो तनोर्मध्ये कण्डूमान्यन्थिसन्निभः॥ और दूसरे दिनमें सबतर्फसे उन्नतहुये किनारोमें फोंडोंकी तरह व्याप्त ॥ १२ ॥ और प्रकट वर्णवाला मध्यमें नतहुआ खाजसे संयुक्त और ग्रंथिके सदृश होताहै ॥ तृतीये सज्वरो रोमहर्षकृद्रक्तमण्डलः॥६३ ॥ शरावरूपस्तोदाढयो रोमकूपेषु सस्त्रवः॥ और तीसरे दिनमें ज्वरसे संयुक्त और रोमांचको करनेवाला और रक्तमंडलवाला ॥ ६३ ।। शरावके आकार अधिक पीडासे संयुक्त और रोमकूपोंमें स्त्रावसे संयुक्त होताहै ॥ महांश्चतुर्थे श्वयथुस्तापश्वासभ्रमप्रदः॥६४॥ और चौथे दिनमें संताप श्वास भ्रमको देनेवाला अत्यंत शोजा होताहै ॥ ६४ ॥ विकारान्कुरुते तांस्तान्पञ्चमे विषकोपजान् ॥ पांचमें दिनमें विषके कोपसे उपजे तिनतिन पूर्वोक्त विकारोंको करताहै ॥ ___ षष्ठे व्याप्नोति मर्माणि सप्तमे हन्ति जीवितम् ॥६५॥ और छठेदिनमें मोमें व्याप्त होताहै और सातमें दिनमें जीवको नाशताहै ॥ १५ ॥ इति तीक्ष्णं विषं मध्यं हीनं च विभजेदतः॥ ऐसे तीक्ष्ण विष मध्य और हीन निरूपित करके लक्षितकरै ॥ एकविंशतिरात्रेण विषं शाम्यति सर्वथा ॥६६॥ और इक्कीस रात्रिमें सब प्रकारसे विष शांत होजाताहै ॥ १६ ॥ अथाशु लूतादष्टस्य शस्त्रेणादशमुद्धरेत् ॥ दहेच जाम्बवौष्ठाद्यैर्न तु पित्तोत्तरं दहेत् ॥ ६ ॥ पीछे मकडीसे दष्टहये मनुष्यके दंशको शस्त्रसे उद्धरितकरै और जांबवौष्ठ आदिसे दग्धकरै और पित्तकी अधिकतावालेको दग्ध नहींकरै ।। ६७ ॥ कर्कशं भिन्नरोमाणं मर्मसंध्यादिसंश्रितम् ॥ प्रसृतं सर्वतो दशं नच्छिन्दीत दहेन्न च ॥ ६८॥ कठोर और भिन्न रोमोंवाले मर्म और संधि आदिमें संश्रित और सब तर्फको फैले हुए दंशको नहीं काटे, दग्धकरै नहीं ॥ ६८ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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