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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१००३) असाध्यहुई मकडीमें हृदयमें मोह श्वास हिचकी शिरमें पीडा शोजेसे उपजी श्वेत पीली काली फुनसी॥५२॥कंप छर्दि दाह तृषा अंधापन नासिकाका टेढापन और धूम्रवर्ण ओष्ठ मुख दंतका होजाना पृष्ठभागका और ग्रीवाका भंजन||९३||और पकेहुये जामुनके समान रक्तका झिरना होताहै।।
सर्वापि सर्वजा प्रायो व्यपदेशस्तु भूयसा ॥ ५४॥ और विशेषकरके सब प्रकारकी मकडी सन्निपातसे उपजती हैं परंतु बहुलताकरके व्यपदेश दिखायाहै ॥ १४ ॥
तीक्ष्णमध्यावरत्वेन सा त्रिधा हन्त्युपेक्षिता॥
सप्ताहेन दशाहेन पक्षेण च परं क्रमात् ॥ ५५ ॥ तीक्ष्ण मध्य मंद करके मकडी तीन प्रकारकीहै और नहीं चिकित्सितकरी मकडी सात. दिनोंमें १० दिनोंमें १५ दिनोंमें क्रमसे नाशतीहै ॥ ५५ ॥
लूतादंशश्च सर्वोऽपि दद्रुमण्डलसन्निभः॥ सितोऽसितोऽरुणः पीतः श्यावो वा मृदुस्नतः॥५६॥ मध्ये कृष्णोऽथ वा श्यावः पर्यन्ते जालकावृतः॥ विसर्पवांच्छोफयुतस्तप्यते बहुवेदनः॥ ५७॥ ज्वराशुपाकविक्लेदकोथावदरणान्वितः ॥ केदेन यस्पृशत्यंङ्ग तत्रापि कुरुते व्रणम् ॥ ५८ ॥ सब प्रकारका मकडीका दंश दादके मंडलके सदृश श्वेत पीला लाल काला अथवा धूम्रवर्णवाला कोमल और ऊंचा ॥ ५६ ॥ और मध्यमें काला अथवा धूम्रवर्ण और सब तर्फसे जालसे आवृतहुवा विसर्पवाला शोजेसे संयुक्त और बहुतसी पीडासे संयुक्त होके तपताहे ॥ १७ ॥ ज्वर शीघ्रपाक क्लेद कोथ अर्थात् शरीरका अवदरण इन्होंसे अंन्वित होताहै और क्लेद करके जिस अंगको छूहताहै तहाँही धावको करताहै ॥ १८ ॥
श्वासदंष्ट्राशकृन्मूत्रशुक्रलालानखार्तवैः॥ .
अष्टाभिरुद्वमत्येषा विषं वऋविशेषतः॥ ५९॥ श्वास दाढ विष्टा मूत्र वीर्य राल नख आर्तव इन आठोंसे और विशेषकरके मुखोंसे मकडी विषको उगलतीहै ॥ १९॥ . लूता नाभेर्दशत्यूर्ध्वमूर्ध्वं वाऽधश्च कीटकाः॥
तदूषितं च वस्त्रादिदेहे पृक्तं विकारकृत् ॥ ६० ॥ नाभिके ऊपर मकडी डशतीहै और नाभीके ऊपर और नीचे कीडे डशतेहैं और मकडीसे दुषित हुआ वस्त्र आदि देहमें लगजावे तो विकारको करताहै ॥ ६ ॥
दिनाई लक्ष्यते नैव दंशो लूताविषोद्भवः ॥ सृचीव्यधवदाभाति ततोऽसौ प्रथमेऽहनि॥६१ ॥
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