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(९९८)
अष्टाङ्गहृदयेयस्य यस्यैव दोषस्य लिङ्गाधिक्यं प्रतयेत् ॥
तस्य तस्यौषधैः कुर्याद्विपरीतगुणैः क्रियाम् ॥ १६ ॥ जिस जिस दोषके लक्षणोंकी अधिकता जानें, तिस तिस दोषसे विपरीत गुणवाले औषधोंसे क्रियाको करै ॥ १६॥
हृत्पीडो/निलस्तम्भः शिरायामोऽस्थिपर्वरुक् ॥
घूर्णनोद्वेष्टनं गात्रश्यावता वांतिके विषे ॥१७॥ वातकी अधिकतावाले विषमें हृदयमें पीडा और ऊपरले वायुका स्तंभ और नाडियोंका आयाम और हड्डियोंका संधिमें पीडा, चूर्णन उद्वेष्टन और शरीरका धूम्रपना होताहै ॥ १७ ।।
संज्ञानाशीष्णनिःश्वासौहृद्दाहः कटुकास्यता॥
मांसावदरणं शोफो रक्त :पीतश्च पैतिके ॥१८॥ पित्तकी अधिकतावाले विषमें संज्ञाका नाश, और गरमश्वास और हृदयमें दाह और कडवा मुख और मांसका विदीर्णहोना लाल और पीला शोजा ये होतेहैं ॥ १८ ॥
छZरोचकहल्लासप्रसेकोलेशपीनसैः॥
सशैत्यमुखमाधुय्यैर्विद्याच्छ्रेष्माधिकं विषम् ॥ १९ ॥ छर्दि अरोचक थुकथुकी प्रसेक उत्क्लेश पीनस शीतलता मुखका मधुरपना इन्होंकरके कफकी अधिकतावाले विषको जानों ॥ १९॥
पिण्याकेन व्रणालेपस्तैलाभ्यंगश्च वाचिके॥
नाडीस्वेदो पुलाकाद्यैर्वहणश्च विधिर्हितः॥२०॥ वातकी अधिकतावाले विषमें खलसे घावपै लेप, तेलकी मालिश, नाडीस्वेद, पुलाक आदिसे बृंहणविधि हितहै ॥ २० ॥
। पैत्तिकं स्तम्भयेत्सेकैः प्रदेहैश्वातिशीतलैः॥ पित्तकी अधिकतावाले विषको अत्यंत शीतलसेक और लेपोंसे स्तंभितकरै ॥
लेखनच्छेदनस्वेदवमनैः श्लैष्मिकं जयेत् ॥ २१॥ . और लेखन स्वेद वमनसे कफकी अधिकतावाले विषको जीते ॥ २१ ॥
कीटानां त्रिःप्रकाराणां त्रैविध्येन प्रतिक्रिया॥ स्वेदालेपनसेकास्तुकोष्णान्प्रायोवचारयेत् ॥ २२ ॥
अन्यत्र मूछितादशपाकतः कोथतोऽथ वा ॥ तीन प्रकारवाले कीडोंकी तीन प्रकारके चिकित्सा हितहै, और प्रायताकरके कुछेक गरमरूप स्वेद लेप सेकको उपाचरितकरै।।२२।।मूछितहुये मनुष्यको और दंशक पाकको और कोथको वर्जकरै ।।
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