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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९९७) मंदविषवाले पलेि और श्वेत रूखे और चित्रवर्णीवाले और मेघके समान नीले ॥ ८॥ और रोमोंवाले और बहुतसे पर्वोवाले लोहतरंगवाले सफेद पेटवाले विच्छू मंदविषवाले होतेहैं ।
धूम्रोदरास्त्रिपर्वाणो मध्यास्तु कपिदारुणाः ॥ ९॥ पिशङ्गाः शबलाश्चित्राः शोणिताभाःऔर धूमांके सदृश पेटवाले, और तीनपर्वोवाले, कपिल और लालरंगवाले ॥ ९ ॥ पिंगल वर्ण वाले, और कर्बुरवर्णवाले, चित्ररूपवाले, लाल कांतिवाले मध्यविषवाले होतेहैं ।
महाविषाः॥ __ अग्न्याभा द्वयेकपर्वाणो रक्ताः केचित्सितोदराः ॥१०॥ और अग्निके समान कांतिवाले दो अथवा एक पर्ववाले और कितनेक लालपेटवाले. कितनेक कृष्ण पेटवाले कितनेक पैनें पेटवाले महाविषवाले होतेहैं ॥ १० ॥
तैर्दष्टः शूनरसनः स्तब्धगात्रो ज्वरादितः॥ स्वैर्वमञ्छोणितं कृष्णमिन्द्रियार्थानसंविदन् ॥ ११॥ . खिद्यन्मूर्च्छन्विशुष्कास्यो विह्वलो वेदनातुरः॥
विशीर्यमाणमांसश्च प्रायशो विजहात्यसून् ॥ १२॥ तिन महाविषवाले विच्छुवोंसे दष्टहुआ सूजी जीभवाला स्तब्ध अंगवाला अरसे पीडित और छिद्रोंसे कालेरक्तका वमन करताहुआ और इंद्रियोंके अर्थोंको नहीं जानताहुआ ॥ ११ ॥ और स्वेदित होताहुआ और मूछित होताहुआ और विशेष करके रूखे मुखवाला विह्वल हुआ पीडासे पीडित और विशीर्यमाण मांसवाला वह मनुष्य विशेषकरके प्राणोंको त्यागताहै ॥ १२॥
उच्चिटिङ्गस्तु वक्रेण दशत्यभ्यधिकव्यथः॥ साध्यतोवृश्चिकात्स्तम्भं शेफसो हृष्टरोमताम् ॥ १३ ॥ करोति सेकमङ्गानां दंशः शीताम्बुनेव च ॥ .
उष्ट्रधूमः स एवोक्तो रात्रिचाराच्च रात्रिकः ॥ १४॥ उच्चिीटंगनामवाला कीडा मुखसे डशताहै, और साध्यरूप बी से अधिक पीडा देनेवाला होताहै, और लिंगके स्तंभको रोमांचको ॥ १३॥ करताहै, और शीतलपानीकी समान अंगोंके सेकको करताहै, और यही उष्ट्रयूम कहाहै और रात्रिमें विचरनेसे रात्रिक कहाहै ॥ १४ ॥
वातपित्तोत्तराः कीटाः श्लेष्मिकाः कणभोन्दुराः॥
प्रायो वातोल्बणाविषा वृश्चिकाः सोष्टधूमकाः ॥ १५ ॥ ___ वात पित्तकी अधिकतावाले कीडे होतेहैं, और विशेषकरके कफकी अधिकतावाले कणभ और विष मूषक होतेहैं और वातकी अधिकतासे विषवाले बळूि और उष्ट्यूमके होतेहैं ॥ १५
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