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(९९६) .
अष्टाङ्गहृदयेवातकी अधिकतावाले कीडोंसे दष्टहुये मनुष्यका दश चभका और पीडावाला होताहै ॥
आग्नेयैरल्पसंस्रावो दाहरागविसर्पवान् ॥२॥
पक्कपीलुफलप्रख्यः खजूरसदृशोऽथ वा॥ . और पित्तकी अधिकतावाले कीडोंसे दष्टहुये मनुष्यका दंश अल्पत्रावसे संयुक्त और दाह राग विसपैवाला ॥२॥ पकेहुये पीलू फलके सदृश अथवा खिजूर फलके सदृश होताहै ॥
. कफाधिकर्मन्दरुजः पक्कोदुम्बरसन्निभः॥३॥
और कफकी अधिकतावाले कीडोंसे दष्टहये मनुष्यका दंश मंदपीडावाला और पकाहुआ गूलरके सदृश होताहै ॥ ३॥
स्रावाढ्यः सर्वलिङ्गस्तु विवर्यः सान्निपातिकैः॥ और सन्निपातके कीडोंसे दष्टहुआ मनुष्यका दंश स्लावसे संयुक्त सब दोषोंके लक्षणोंवाला होताहै यह वर्जना योग्यहै ।। . .. वेगाश्च सर्पवच्छोफो वर्द्धिष्णुर्वित्ररक्तता ॥४॥
शिरोऽक्षिगौरवं मूर्छा भ्रमः श्वासोऽतिवेदना ॥ और कीटके डशनेमें सर्पके डशनेकी तरह वेग शोजा बढना कच्चीगंधवाला रक्तपना ॥ ४ ॥ शिर नेत्रोंका भारीपन मूर्छा भ्रम श्वास अत्यन्त पीडा उपजतीहै ॥
सर्वेषां कर्णिकाशोफो ज्वरः कण्डूररोचकः॥५॥ और सब दंशोंके कर्णिकाके सदृश शोजा और ज्वर खाज और अरोचक होतेहैं ।।
वृश्चिकस्य विषं तीक्ष्णमादौ दहति वह्निवत् ॥ ऊर्ध्वमारोहति क्षिप्रं दंशे पश्चात्तु तिष्ठति ॥६॥
दंशः सद्योऽतिरुक्छयावस्तुद्यते स्फुटतीव च ॥ वीका विष तीक्ष्ण होताहै और आदिमें अग्निकी समान जलाताहै और ऊपरको शीघ्र चढ जाताहै और पश्चात् दंशमें स्थित होताहै ॥ ६ ॥ और तत्काल अत्यन्त पीडावाला और धूम्रवर्ण और चभकासे संयुक्त और स्फुटितहुयेकी तरह दंश होजाताहै ॥
ते गवादिशकृत्कोथादिग्धदष्टादिकोथतः॥७॥
सर्पकोथाश्च सम्भूता मन्दमध्यमहाविषाः॥ वे बीछू गाय आदिके गोवरके मैलसे उपजे, और विषसे, लेपके दष्टके मैलसे उपजे ॥ ७ ॥ और सर्पके कोथसे उपजे, वीछू मंद विषवाले मध्यविषवाले महाविषवाले क्रमसे होतहैं ।
मन्दाः पीताः सिताःश्यावा रूक्षकर्बुरमेचकाः ॥८॥ रोमशा बहुपर्वाणो लोहिताः पाण्डुरोदराः॥
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