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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९९५) सिता वैगन्धिको द्राक्षा पयस्या मधुकं मधु ॥ पाने समन्त्रपूताम्बुप्रोक्षणं सान्वहर्षणम् ॥ ८९॥
सर्पणाभिहते युज्यात्तथा शङ्काविषार्दिते॥ मिसरी इंगुदी दाख दूधी मुलहटी शहदका पान और मंत्रकरके पवित्र किये जलका प्रोक्षण और सांत्वन और हर्षण ॥ ८९ ॥ शंकाविषसे पीडित और सर्पकरके अंगमें अभिहतहुएमें प्रयुक्तकरै ।।
कर्केतनं मरकतं वजं वारणमौक्तिकम् ॥ ९० ॥ वैदूर्यगर्दभमणिं पिचुकं विषमूषिकाम् ॥ हिमवगिरिसम्भूतां सोमराजी पुनर्नाम् ॥ ९१॥ तथा द्रोणां महाद्रोणां मानसीं सर्पजं मणिम् ॥
विषाणि पिषशान्त्यर्थं वीर्य्यवन्ति च धारयेत्॥९२॥ और कर्केतन रत्नविशेष मरकतमणि हीरा हाथीका मोती ॥९० ॥ वैडूर्य्यमणि गर्दभमाणि पन्ना विषमूषिका हिमालय पर्वतमें उपजी चांदवेल और शांठी ॥ ९१ ॥ द्रोणामणि महाद्रोणामणि मानसीमणि, सर्पकीमणि और वीर्यवाले विषको विषकी शांतिके अर्थ धारण करै ॥ ९२ ॥ . छत्री जर्जरपाणिश्च चरेद्रात्रौ विशेषतः ॥
तच्छायाशब्दवित्रस्ताः प्रणश्यन्ति भुजङ्गमाः॥९३॥ छत्रवाले और जर्जरहाथवाले जिनके हाथमें डंडाहो और विशेषकरके रात्रिमें विचरनेवालों के छाया और शब्दसे डरेहुये सर्प नाशको प्राप्तहोतेहैं ॥९३ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६॥
सप्तत्रिंशोऽध्यायः।
अथातः कीटलूतादिविषप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर कीटलूतादिविषप्रातषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
सर्पाणामेव विण्मूत्रशुक्राण्डशवकोथजाः॥
दोषैर्व्यस्तैः समस्तैश्च युक्ताः कीटाश्चतुर्विधाः॥१॥ सपोंके विष्टा मूत्र वीर्य अंड शव मैलसे उपजे कीडे वात पित्त कफ सन्निपातसे चार प्रकारकेहैं।॥१॥
दष्टस्य कीटैर्वायव्यैर्दशस्तोदरुजोल्बणः॥
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