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उत्तरस्थानं भाषाटीका समेतम् ।
( ९९९ )
नृकेशाः सर्षपाः पीता गुडो जीर्णश्च धूपनम् ॥ २३ ॥ विषदंशस्य सर्वस्य काश्यपः परमब्रवीत् ॥
और मनुष्यके बाल पीली सरसों पुरानागुड इन्होंकी धूप ||२३|| सब प्रकारके विषके दशको हित है ऐसे काश्यप मुनिने कहा है ||
विषघ्नं च विधिं सर्वं कुर्य्यात्संशोधनानि च ॥ २४ ॥
तथा विषको नाशनेवाली सब विधि और संशोधनको करै ॥ २४ ॥ साधयेत्सर्पवद्दष्टान्विषोषैः कीटवृश्विकैः ॥
उग्रविषवाले कीडे और बछॢिसे डरोहुये मनुष्यको सर्प के डशनेकी समान साधितकरै ॥ तन्दुलीयकतुल्यांशां त्रिवृतां सर्पिषा पिबेत् ॥ २५ ॥ याति कीटविषैः कम्पं न कैलास इवानिलैः ॥
चौलाई निशोत समान भागले घृतके संग पीवै ॥ २५ ॥ कीटके विषोंसे कंपको नहीं प्राप्त होता जैसे पवनों से कैलास ||
क्षीरवृक्षत्वगालेपः शुद्धे कीटविषापहः ॥ २६ ॥
और दूधवाले वृक्षों की छालका लेप शुद्धहुये में कीडोंके विषको नाशता है ॥ २६ ॥ मुक्तालेपो वरः शेोफतोददाहज्वरप्रणुत् ॥ मोतियोंका लेप यहां श्रेष्ठहै, और शोजा चमका दाह ज्वरको नाशता है ॥ वचाहिंगुविडङ्गानि सैन्धवं गजपिप्पली ॥ २७ ॥ पाठा प्रतिविषा व्योषं काश्यपेन विनिम्मितम् ॥ दशांगमगदं पीत्वा सर्वकीटविषं जयेत् ॥ २८ ॥ और बच हींग विधंग सेंधानमक गजपीपल ॥ २७ ॥ पाठा कालाअतीस सूंठ मिरच पीपल यह दशांग औष काश्यपने रचा है इसका पानकरके मनुष्य सब कीटविषको जीतता है ॥ २८ ॥
सद्यो वृश्चिकजं देशं चक्रतैलेन सेचयेत् ॥
विदारिगन्धसिद्धेन कवोष्णेनेतरेण वा ॥ २९॥
बीके दंशको शीघ्र शालपर्णीमें सिद्ध किये और कोल्हू से निकसे तेलसे अथवा कछुक गरम किये तेल से सींचे ॥ २९ ॥
लवणोत्तमयुक्तेन सर्पिषा वा पुनः पुनः ॥
सिञ्चेत्कोष्णारनालेन सक्षीरलवणेन वा ॥ ३० ॥
संधानमक से संयुक्त किये घृतसे वारंवार सींचे अथवा दूध और नमकसे संयुक्त और कछुक गरम कांजीसे सींचे ॥ ३० ॥
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