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(९८८)
अष्टाङ्गहृदयेहिमा श्वासा वमिःकासो दष्टमात्रस्य देहिनः॥३३॥
जायन्ते युगपद्यस्य स हृच्छ्रली न जीविति ॥ और दष्टमात्रहुये मनुष्यके हिचकी श्वास दिखांसी ॥ ३३ ॥ये एक कालमें उपजै और हृदय में शूल होवे वही नहीं जीता और ॥
फेनं वमति मिःसञ्ज्ञः श्यावपादकराननः॥ ३४॥ नासावसादोभङ्गोऽड़े विड्भेदः श्लथसन्धिता॥ विषपीतस्य दष्टस्य दिग्धेनाभिहतस्य च ॥३५॥
भवन्त्येतानि रूपाणि सस्प्राप्ते जीवितक्षये ॥ संज्ञासे रहितहुआ झागोंका वमन करे, और धूम्रवर्णवाले पैर हाथ मुख होजावे ॥ ३४ ॥और नासिकाका अवसादहो, और अंगभंग और विष्ठाका भेद संधियोंकी शिथिलता ये लक्षण विषको पीनेवालेके और सर्प आदिसे दष्टहुयेके और विषकरके लोपितहुये तीर आदिके लगजानेके ॥३५॥ जीवितके क्षय होनेके समय ये रूपहोतेहैं ।
न नस्यैश्चेतना तीक्ष्णैर्न क्षतात्क्षतजागमः॥३६॥
दण्डाहतस्य नो राजीप्रयातस्य यमान्तिकम्॥ और तीक्ष्णरूप नस्योंसेभी संज्ञा नहीं उपजै और क्षतहुयेसे रक्तका आगमन नहीं होवे ॥ ३६ ।। और दंडकी चोट मारनेसे रेखा नहीं उपजे ये सब धर्मराजके समीपमें जानेवालेके लक्षणहैं ।
अतोऽन्यथा तु त्वरया प्रदीप्ताङ्गारवद्भिषक् ॥ ३७॥
रक्षन्कण्ठगतान्प्राणान्विषमाशु शमं नयेत् ॥ इसके विपरीत जलतेहुये घरकी समान शीघ्रताकरके ॥ ३७॥ कंठगत प्राणोंको रक्षित करता हुआ वैद्य विषको शीघ्रही शांतिको प्राप्तकरै ।। . मात्राशतं विषं स्थित्वा दशे दष्टस्य देहिनः॥ ३८॥
देहं प्रक्रमते धातूत्रुधिरादीन्प्रदूषयेत् ॥ __ और दुष्टहुये मनुष्यके दंशमें १०० मात्रा कालतक विष ठहरके ॥ ३८ ॥ पीछे देहमें रक्तादि धातुओंको दूषित करताहुआ फैलता है ॥
एतस्मिन्नन्तरे कर्म दंशस्योत्कर्त्तनादिकम् ॥३९॥
कुर्य्याच्छीघ्रं यथा देहे विषवल्ली न रोहति ॥ • इसी अंतरमें दंशके उत्कर्तन आदि कर्मको ॥ ३९ ॥ शीघ्र करें जैसे कि देहमें विषकी बेल नहीं रोहित होवे ॥
दष्टमात्रो दशेदाशु तमेव पवनाशिनम् ॥ ४०॥
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