________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(९८७)
मंडली सर्पसे दष्टहुयेके प्रथम वेगमें दुष्ट और पीला लोहू होजाता है, और तिसरक्तसे अंगों का पीलापन और दाह उपजती है, और दूसरे वेगमें शोजा. उपजता है || २३ || तीसरे वेगमें दशका विक्लेद पसीना तृषा उपजते हैं, और चौथे वेगमें ज्वर दाह उपजता है, और पांचवें वेग में सब शरीरगत दाह हो जाता है || २४ || राजिल सर्पोंसे दष्टयेका रक्त पांडुपनेको प्राप्त होता है, तिससे अंगों की पांडुता होजाती है, और दूसरे वेगमें अत्यंत भारीपन होजाता है || २५ || तीसरे वेग में दंशका विक्केद और नासिका मुख नेत्र झिरते हैं, और चौथे वेग में शिरका भारीपन और मन्यास्तंभ हो जाता है और पांचवें बेगमें ॥ २६ ॥ अंगों का भंग और शीतलज्वर और शेषरहे वेगों में दवकर सर्पके दष्टकी समान लक्षण होते हैं ||
कुर्य्यात्पञ्च वेगेषु चिकित्सां न ततः परम् ॥ २७ ॥ और पांचों वेगों में चिकित्साको करै और तिससे परे नहीं ॥ २७ ॥ जलाप्लुता रतिक्षीणा भीता नकुलनिर्जिताः ॥ शीतवातातपव्याधिक्षुत्तृष्णाश्रमपीडिताः ॥ २८ ॥ तूर्ण देशान्तरायाता विमुक्तविषकंचुकाः ॥ कुशपधीकण्टकवद्ये चरन्तीव काननम् ॥ २९ ॥ देशं च द्विव्याध्युषितं सर्पास्तेऽल्पविषा मताः ॥
जलसे आप्लुतहुये और रतिसे क्षीण और भीत नकुलसे निर्जितहुये और शीत वायु घाम व्याधि भूख तृपा परिश्रमसे पीडित ॥ २८ ॥ और शीघ्रही अन्य देशमें प्राप्तहुये और कांचलीको छोडेहुये और कुशा औषधि कंटक से संयुक्तहुये वनमें विचरतेहुये ॥ २९ ॥ और देवता के स्थान से संयुक्त हुये देशके निकट स्थितहुये सर्प अल्प वाले कहें हैं ॥
श्मशानचितिचैत्यादौ पंचमीपक्षसन्धिषु ॥ ३० ॥ - अष्टमी नवमीसन्ध्यामध्यरात्रिदिनेषु च ॥ याम्याग्नेयमघाश्लेषाविशाखा पूर्वनैर्ऋते ॥ ३१ ॥ नैर्ऋताख्ये मुहूर्त्ते च दष्टं मर्म्मसु च त्यजेत् ॥ दष्टमात्रः सितास्याक्षः शीर्य्यमाणशिरोरुहः ॥ ३२ ॥ स्तब्धजिह्वो मुहुर्मुच्छेञ्छीतोच्छ्रासो न जीवति ॥
और श्मशान प्रेतशय्या देवताधिष्ठित वृक्ष अथवा चौराहा पंचमी और पक्षकी संधि ॥ ३० ॥ अष्टमी नवमी संध्या मध्यरात्र दुपहर भरणी कृत्तिका मघा आश्लेषा विशाखा तीनों पूर्वा मूलमें इनमें ॥ ३१ ॥ संध्योदय मुहूर्तमें दष्टहुये और मर्मस्थान में दृष्टहुये मनुष्यको त्यागे और दष्टमात्रहुआही सफेदमुख और नेत्रोंवाला होजावै, शीर्य्यमाण हुये वालोंसे संयुक्त होजावे ॥ ३२ ॥ और स्तब्ध जीभवाला होके वारंवार मूर्च्छाको प्राप्तहोने और शीतल श्वासको लेवे वह नहीं जीता ॥
For Private and Personal Use Only