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(९८६)
अष्टाङ्गहृदये___ग्लानिर्मोहोऽतिसारो वा तच्छङ्काविषमुच्यते ॥ १७॥ .
और अत्यंत अंधकारमें किसी एक प्राणीसे विद्धहुये मनुष्यके डसनेकी शंकासे ॥ १६ ॥ विषका उद्वेग ज्वर छर्दि मूर्छा दाह होतहैं, अथवा ग्लानि मोह अतिसार होतेहैं यह शंकाविष कहाताहै ॥ १७ ॥
तुद्यते सविषो दंशः कण्डशोफरुजान्वितः॥
दह्यते ग्रथितः किञ्चिद्विपरीतस्तु निर्विषः ॥ १८ ॥ विष सहित दंश चभकाको प्राप्त होताहै, और खाज शोजा पीडासे युक्त होताहै, और ग्रथित दुआ दग्ध होताहै, और इससे विपरीत दंश निर्विष कहाहै ।। १८ ।।
पूर्वे दर्वीकृतां वेगे दुष्टं स्रावीभवत्यसक्॥
श्यावता तेन वक्रादौ सर्पन्तीव च कीटकाः॥१९॥ दर्वीकर सोंके प्रथम वेगमें धूम्रवर्णवाला और दुष्ट रक्त झिरताहै और तिससे मुख और नयन आदिमें धूम्रपना होताहै, और शरीर में कीडोंके चलनेकी समान पीडा होतीहै ॥ १९ ॥
द्वितीये ग्रन्थयो वेगे तृतीये मूर्ध्नि गौरवम् ॥ दुर्गन्धो दंशविक्लेदश्चतुर्थे ष्ठीवनं वमिः ॥ २०॥ सन्धिविश्लेषणं तन्द्रा पञ्चमे पर्वभेदनम् ॥ दाहो हिध्मा च षष्ठे च हृत्पीडा गात्रगौरवम् ॥२१॥ मूर्छाविपाकोऽत्तीसारःप्राप्य शुक्रं तु सप्तमे ॥ स्कन्धपृष्ठकटीभङ्गः सर्वचेष्टानिवर्त्तनम् ॥ २२ ॥ दूसरेबेगमें ग्रंथि होजातीहै और तीसरे वेगमें शिरमें भारीपन दुगंध और दंशमें विक्लेद उपजतेहैं, चौथे वेगमें थूकना और छार्दै ॥२०॥ संधियों का विश्लेष तंद्रा और पांचवेंमें संधियोंका भेदन दाह हिचकी और छठे वेगमें हृदयमें पीडा और शरीरका भारीपन ॥ २१ ॥ मूर्छा विपाक और अतिसार होतेहैं और सातवें वेगमें वीर्यमें प्राप्तहोके विष स्कंध पृष्टभाग कटीका भंगकरताहै, और सब चेष्टाओंकी निवृत्ति होतीहै ॥ २२॥
अथ मण्डलिदष्टस्य दुष्टं पीतीभवत्यसृक् ॥ तेन पीताङ्गता दाहो द्वितीये श्वयथूद्भवः॥२३॥तृतीये देशविक्लेदःस्वेदस्तृष्णा च जायते ॥ चतुर्थे ज्वर्यते दाहः पञ्चमे सर्वगात्रगः॥२४॥ दष्टस्य राजिलैर्दुष्टं पाण्डुतां याति शोणितम् ॥पाण्डुता तेन गात्राणां द्वितीये गुरुताऽति च ॥ २५॥ तृतीये दंशविक्लेदो नासिकाक्षिमुखस्रवाः॥ चतुर्थे गरिमा मूों मन्यास्तम्भश्च पञ्चमे ॥ २६ ॥ गात्रभंगो ज्वरः शीतः शेषयोः पूर्ववद्वदेन् ॥
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