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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९८५) पापवृत्तितया वैरादेवर्षियमचोदनात् ॥
पश्यन्ति सर्पास्तेषूक्तं विषाधिक्यं यथोत्तरम् ॥ ९ ॥ भयसे और पैरके स्पर्शसे और अतिविषसे और क्रोधसे भोजनके अर्थ ॥ ८ ॥ और पापवृत्ति पनेसे देव ऋषि यमके प्रेरित किये वैरसे सर्प डसतेहैं तिन्होंमें उत्तरोत्तर क्रमके अनुसार विषकी अधिकता कहीहै ॥ ९॥
__ आदिष्टात्कारणं ज्ञात्वा प्रतिकुर्याद्यथायथम् ॥ कहेहुये सर्पके लक्षणसे कारणको जान चिकित्सा करै ॥ . व्यन्तरः पापशीलत्वान्मार्गमाश्रित्य तिष्ठति ॥१०॥ और व्यंतरनामवाला सर्प पापके स्वभावसे मार्गमें आश्रितहोके स्थितहोताहै ॥ १० ॥ यत्र लालापरिक्लेदमात्रं गात्रे प्रदृश्यतेन तु दंष्ट्राकृतं दशं ततुण्डाहतमादिशेत् ॥११॥ एकं दंष्ट्रापदं द्वे वा व्यालीढाख्यमशोणितम् ॥ दंष्ट्रापदे सरक्ते द्वे व्यालुप्तं त्रीणि तानि तु ॥ १२ ॥ मांसच्छेदादविच्छिन्नरक्तवाहीनि दंष्ट्रकम् ॥ दंष्ट्रापदानि चत्वारि तद्वद्दष्टनिपीडितम् ॥ १३॥ निर्विषं द्वयमत्राद्यमसाध्यं पश्चिमं वदेत् ॥ . जिस शरीरमें रालसे परिक्लेदमात्र लब्धहोवे और दंष्ट्रा करके दंश दीखे नहीं तिसको तुंडाहत कहो ॥ ११ ॥ एक दंष्ट्रापदहो अथवा दो दंष्ट्रापदहो और रक्तसे वर्जितहो तिसको व्यालीढाख्य जानों और रक्तके सहित दो दंष्ट्रापद होवें तिसको व्यालुप्त जानों और तीन दंष्ट्रापद होवें ॥ १२॥
और मांसके छेदसे निरंतर रक्तको बहातहों तिसको दंष्ट्रक कहो और तैसेही चार दंष्ट्रापद होवें तो दंष्ट्रपीडित कहो ॥१३॥ इन्होंमें आदिके दोनोंको विषसे वर्जितकहो और पिछलेको असाध्यकहो ।।
विषमाहेयमाप्राप्य रक्तं दूषयते वपुः ॥ १४ ॥
रक्तमण्वपि तु प्राप्तं वर्द्धते तैलमम्बुवत् ॥ और सर्पका विष रक्तको प्राप्त होके शरीरको दूपित करताहै ॥१४॥ अल्परक्तकोभी प्राप्तहुआ विष ऐसे बढताहै जैसे पानीमें तेल ॥
भीरोऽस्तु सर्पसंस्पर्शाद्भयेन कुपितोऽनिलः ॥ १५ ॥
कदाचित्कुरुते शोफं साङ्गाभिहतं तु तत् ॥ . और डरपोक मनुष्यके सर्पके संस्पर्शमें भयसे कुपितहुआ वायु ॥ १५ ॥ कदाचित् शोजाको करताहै, वह सीगाभिहत होताहै ॥
दुर्गान्धकारे विद्धस्य केनचिद्दष्टशङ्कया ॥१६॥ विषोद्वेगो ज्वरच्छर्दिर्मूर्छादाहोऽपि वा भवेत् ॥
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