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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम्। (९८९) लोष्टं महीं वा दशनैश्छित्वा चानु ससंभ्रमम् ॥ निष्ठीवेन समालिम्पदंशं कर्णमलेन वा ॥४१॥ और दष्टमात्र हुआ मनुष्य तिसी डशनेवाले सर्पको शीघ्रही डसे खावै ॥ ४० ॥ अथवा लोष्टको व पृथिवीको दांतोंसे छेदितकर पीछे शीघ्रही थूकसे अथवा कानके मैलसे लेपितकरै ॥ ४१॥
दंशस्योपरि बनीयादरिष्टां चतुरंगुले ॥ क्षौमादिभिर्वेणिकया सिद्धैर्मन्त्रैश्च मन्त्रवित्॥४२॥ अम्बुवत्सेतुबन्धेन बन्धेन स्तभ्यते विषम् ॥
न वहन्ति शिराश्चास्य विषं बन्धाभिपीडिताः॥४३॥ दंशके ऊपर चार अंगुलमें रेशमी आदि वस्त्रसे अथवा वेणी आदिसे और सिद्ध मंत्रोंसे मंत्रको जाननेवाला वैद्य वन्धको बाँधै ॥ ४२ ॥ बन्धसे विष स्तम्भ होजाता है जैसे पुलके बांधनेसे पानी, बंधसे अभिपीडित हुई नाडिय विषको नहीं प्राप्त होती हैं ॥ ४३ ॥
निष्पीडयानूद्धरेदंशं मर्मसन्ध्यगतं तथा ॥
न जायते विषावेगो बीजनाशादिवांकुरः॥४४॥ पीछे मर्मसंधिको वर्जिके अन्य जगहके दंशको निपीडितकर दंशको उद्धारकरै, ऐसे करनेसे विषका वेग नहीं उपजताहै, जैसे बीजके नाशसे अंकुर नहीं उपजते ॥
दंशंमण्डालनांमुक्त्वा पित्तलत्वादथापरम् ॥ प्रततैर्हेमलोहाद्यैर्दहेदाशूल्मुकेन वा ॥४५॥
करोति भस्मसात्सद्यो वह्निः किं नाम न क्षणात् ॥ मंडलवाले सोंके दंशको पित्तलपनेके हेतुसे छोडके पीछे अन्य देशको तप्तकिये सोना और लोहा आदिसे अथवा उल्मुक अर्थात् टीभीसे दग्धकरै ॥ ४५ ॥ अग्नि क्षणमात्रसे सब वस्तुओंको भस्म करताहै और क्षतकी तो कौन कथाहै ॥ .
आचूषेत्पूर्णवत्रो वा मृद्भस्मागदगोमयैः ॥ ४६ ॥ प्रच्छायान्तररिष्टायां मांसलं तु विशेषतः॥ अंगं सहैव दंशेन लेपयेदगदैर्मुहुः॥४७॥
चन्दनोशीरयुक्तेन सलिलेन च सेचयेत् ॥ और मट्टी भस्म औषध गोबर इन्होंसे पूरित मुखवाला ॥ ४६॥ बंध मध्यमें पछने करके और मांसवाले स्थानको विशेषके पछनेलगाकर चूसे और दंशके सहित अंगको औषधोंसे वारंवार लेपितकरै ।। ४७ ॥ चंदन और खससे युक्त किये पानीसे शरीरको सेचितकरे ॥
विषे प्रविसृते विध्याच्छिरां सा परमा क्रिया ॥४८॥ रक्ते निर्रियमाणे हि कृत्स्नं निहियते विषम् ॥
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