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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । और जिसमें वात पितसे दाह कृशपना विवर्णतासे संयुक्तहुआ आर्तव नष्ट होजावे वह लोहितक्षया व्यापत् है ॥ ४५ ॥
पित्तलाश्यानृसंवासेक्षवथूगारधारणात्॥पित्तयुक्तेन मरुता योनिर्भवति दूषिता॥ ४६॥शूनस्पर्शासहा सातिनीलपीतास्रवाहिनी॥ बस्तिकुक्षिगुरुत्वातीसारारोचककारिणी॥४७॥श्रोणिवंक्षणरुक्तोदज्वरकृत्सा परिप्लुता ॥ पित्तल पदार्थोको खानेवाली स्त्रीके पुरुषके संयोगसे छींक और डकारको धारण करनेसे पित्तसे युक्त हुये वायुसे दूषित योनि होजातीहै ॥ ४६॥ शोजासे संयुक्त और स्पर्शको नहीं करनेवाली और शूलसहित नीले और पीले रक्तको वहानेवाली और बस्तिस्थान और कूखका भारीपन अतिसार और अरोचकको करनेवाली ॥ ४७ ॥ और कटी योनिसंघिमें शूल और चमकेको करनेवाली और ज्वरको करनेवाली परिप्लुता योनि होतीहै ॥
वातश्लेष्मामयव्याप्ता श्वेतपिच्छिलवाहिनी ॥४८॥
उपप्लुता स्मृता योनिःऔर वात और कफके रोगोंसे व्याप्त श्वेतरूप पिच्छिलमलको बहनेवाली ॥ ४८ ॥ उपकृत्ता योनि कहीहै ॥
विलुताख्या त्वधावनात् ॥ . सातजन्तुः कण्डूला कण्ड्वा चातिरतिप्रिया॥४९॥
और नहीं धोनेसे और कीडोंसे संयुक्त और खाजसे संयुक्त और हेतुके विना खाजकाली और अत्यंत भोगकरनेमें प्यार करनेवाली विप्लुताख्या योनिव्यापत् होतीहै ॥ ४९ ॥
अकालवाहनाद्वायुः श्लेष्मरक्तविमूर्च्छितः॥ कर्णिकाञ्जनयद्योनौ रजोमार्गनिरोधिनीम्॥५०॥
सा कर्णिनीअकालमें वहनेसे कफ और रक्तसे माछित हुआ वायु योनिमें आर्तवके मार्गको रोकनेवाली कर्णिकाको उपजाताहै ॥ ५० ॥ यह कर्णिनी कही है ।
त्रिभिर्दोषोनिगर्भाशयाश्रितैः॥ यथास्वोपद्रवकरैर्व्यापत्सा सान्निपातिकी ॥५१॥ और योनिके गर्भाशयमें आश्रितहुये और यथायोग्य उपद्रवको करनेवाले तीन दोषोंस सान्निपातिकी व्यापत् कहीहै ।। ५१ ॥
इति योनिगदा नारी यैः शुक्रं न प्रतीच्छति ॥ ततो गर्भ न गृह्णाति रोगांश्चाप्नोति दारुणान् ॥
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