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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९६३) और रूखा आर्तवका स्त्रव अंडसंधि और पशली आदिमें भ्रंश और पीडा क्रमसे गुल्मको करताहै ॥ ॥ ३० ॥ और अनेक प्रकारके अपने रोगोंको करताहै यह वातकी नामवाली व्यापत् कहीहै ।
सैवातिचरणा शोफसंयुक्ताऽतिव्यवायतः ॥३१॥ और अत्यंत मैथुनके करनेसे शोजासे संयुक्तहोवे वह अतिचरणा व्यापत् कहीहै ॥ ३१ ॥
मैथुनादतिबालायाः पृष्ठजंघोरुवंक्षणम् ॥
रुजन्संदूषयेद्योनि वायुःप्राकरणति सा ॥३२॥ मैथुन करनेसे अत्यंतबाला स्त्रीके पृष्ठभाग जंघा योनि ऊरू संधि इन्होंमें पीडित करताहुआ वायु योनिको दूपितकरै वह प्राकरणरोग कहाहै ॥ ३२॥
वेगोदावर्तनाद्योनि प्रपीडयति मारुतः॥ सफेनिलं रजः कृच्छ्रादुदावृत्तं विमुञ्चति ॥ ३३ ॥
इयं व्यापदुदावृत्तावेगके उदावर्तनसे वायु योनिको प्रकर्षकरके पीडन करताहै, तब वह योनि झागोंवाले आर्तवको कष्टसे उदावर्तरूपकर छोडतीहै ।। ३३ ॥ यह उदावृत्ता व्यापत् है ।।
जातन्त्री तु यदानिलः॥ जातं जातं सुतं हन्ति रोक्ष्यादृष्टार्तवोद्भवम् ॥ ३४॥ और जब वायु रूखेपनेसे दुष्ट आर्तवसे उपजेहुये वालकको नाशताहै तब जातघ्नी व्यापत् जानो ३४
अत्याशिताया विषमं स्थितायाः सुरते मरुत् ॥ अन्ननोत्पीडितो योनेः स्थितः स्रोतसि वक्रयेत् ॥३५॥
सास्थिमांसं मुखं तीव्ररुजमन्तर्मुखीति सा॥ अत्यन्त भोजन करनेवाली और भोगके समयमें विषम स्थित होनेवाली ऐसी स्त्रीके अन्नसे उत्पीडितहुआ वायु योनिके स्रोतमें स्थित होके ॥ ३५ ॥ अस्थि और मांसके सहित योनिके मुखको कुटिल अर्थात् टेढा करदेताहै, तब तीव्र पीडा होतीहै यह अन्तर्मुखी व्यापत् कहीहै ।
वातलाहारसेविन्यां जनन्यां कुपितोऽनिलः ॥ ३६ ॥
स्त्रियो योनिमणुद्वारा कुर्यात्सूचीमुखीति सा॥ और वातल भोजनोंके सेवन करनेवाली माताके होनेमें कुपितहुआ वायु ॥ ३६ ॥ गर्भमें स्थत होनेवाली कन्याकी सूक्ष्म द्वारवाली योनिको करताहै वह सूचीमुखी कहीहै ।।
वेगरोधातौ वायुर्दष्टो विमूत्रसंग्रहम् ॥३७॥ करोति योनेः शोषं च शुष्काख्या सातिवेदना ॥ और ऋतुकालमें वेगके धारणसे दुटहुआ वायु विष्टा और मूत्रके संग्रहको ॥ ३७ ॥ और योनिके शोषको करताहै तब अत्यन्त पीडाले संयुक्तहुई शुष्कानामवाली व्याधि कहीहै ।।
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