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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । . (९६१) मुदितं मृदितं वस्त्रसंरब्धं वातकोपतः॥ मलिनहुआ और वस्त्रसे संक्षुभित मृदित वातके कोपसे उपजताहै ।
विषमा कठिना भुग्ना वायुनाऽष्ठीलिका स्मृता ॥ १६ ॥ और विषमरूप तथा कठिन तथा कुटिल अष्ठीलिका होतीहै ॥ १६ ॥
विमर्दनादिदुष्टेन वायुना चर्म मेट्रजम् ॥ निवर्त्तते सरुग्दाहं कचित्पाकं च गच्छति ॥१७॥ पिण्डितं ग्रन्थितं चर्म तत्प्रलम्बमधो मणेः॥
निवृत्तसंज्ञं सकर्फ कण्डूकाठिन्यवत्तु तत् ॥१८॥ विमर्दनआदिसे दुष्टहुए वायुसे पीडा और दाहसे संयुक्तहुआ लिंगका चर्म उलटजाता और कदाचित् पाकको प्रातहोताहै ॥ १७ ॥ वही चर्म मणीके नीचे पिंडित और ग्रंथित और प्रलंब होताहै और कफसे सहित और खाज तथा कठिनपनेवाला वह निवृत्तसंज्ञक होताहै ॥ १८ ॥
दुरूढं स्फुटितं चर्म निर्दिष्टमवपाटिका ॥ कष्टकरके रोहितहुआ और स्फुटितहुआ चर्म अवपाटिका कहाहै ।
वातेन दृषितं चर्म मणौ सक्तं रुणद्धि चेत् ॥ १९ ॥ स्रोतोमूत्रं ततोऽभ्येति मन्दधारमवेदनम् ॥
मणेविकाशरोधश्च सनिरुद्धमणिर्गदः॥२०॥ और वातसे दूषितहुआ चर्म मणीमें रक्त होके जो कदाचित् स्रोतको रोकताहै ॥ १९ ॥ तब मंदधारवाला और पीडासे रहित मूत्र प्राप्त होताहै और मणीका विकाश तथा रोध होताहै यह निरुद्धमणी कहाहै ॥ २०॥
लिङ्गं शूकैरिवापूर्ण ग्रथिताख्यं कफोद्भवम् ॥ शुकोंसे व्याप्तकी तरह लिंग होजावे वह कफसे उपजा ग्रथित रोगहै ॥
शूकदूषितरक्तोत्था स्पर्शहानिस्तदाह्वया ॥२१॥ और शूकसे दूषित रक्तसे उपजा और स्पर्शमें हानि देनेवाला ऐसा स्पर्शहानि रोग कहाहै॥२१॥ छिद्रेरणुमुखैर्यस्तु सर्वतोव्याप्तलिङ्गकः॥
वातशोणितकोपेन तं विद्याच्छतपोनकम् ॥ २२॥ जो सूक्ष्म मुखोंवाले छिद्रसे सब ओरसे व्याप्तहुआ लिंग वातरक्तके कोपकरके होवे तिसको शतपोनक जानो ॥ २२ ॥
पित्तासृग्भ्या त्वचः पाकस्त्वक्पाको ज्वरदाहवान् ॥ पित्त और रक्तसे त्वचाका पाक होना और दाहसे संयुक्त हो वह त्वक्पाक कहाताहै |
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