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( ९६०)
अष्टाङ्गहृदयेजायन्ते कुपितैर्दोषैर्गुह्यासृक्पिशिताश्रयैः ॥ ९ ॥ लिंगमें रक्त मांसमें आश्रितहुये और कुपितहुये दोषोंसे ॥९॥
अन्तर्बहिर्वा मेदस्य कण्डूला मासकीलकाः ॥ पिच्छिलास्यत्रवा योनौ तद्वच्च च्छत्रसन्निभाः ॥ १०॥
तेऽशास्युपेक्षया नन्ति मेढ़पुंस्त्वभगार्तवम् ॥ लिंगके भीतर अथवा बाहिर खाजवाले और पिच्छलरूप रक्तको झिरानेवाले मांसकीलक उपजतेहैं, और तैसेही स्त्रीकी योनिमें छत्रके सदृश मांसके कीले उपजतेहैं ॥ १० ॥ वे अर्श कहातेहैं, जो ये चिकित्सित नहीं किये जावें तो लिंगमें पुरुषपनेको और योनिमें आर्तवकोनाशतेहैं ।।
गुह्यस्य बहिरन्तर्वा पिटिकाः कफरक्तजाः ॥११॥
सर्षपा मानसंस्थानां घनाः सर्वपिकाः स्मृताः ॥ __ और लिंगके भीतर अथवा बाहिर कफ और रक्तसे उपजी फुनसियां होंवें ॥ ११ ॥ और सरसोंके समान प्रमाण और संस्थानवाली और कररी सर्षपिका कहीहै ।।।
पिटिका बहवो दीर्घा दीर्य्यन्ते मध्यतश्च याः ॥ १२ ॥
सोऽवमन्यः कफासृग्भ्यां वेदनारोमहर्षवान् ॥ और बहुतसी लंबी और मध्यसे विदारितहुई फुनसियां ॥ १२ ॥ अवमंथ कहातीहै यह कफ और रक्तसे उपजतीहैं पीडा और रोमहर्षवाली होतीहैं ॥
कुम्भीका रक्तपित्तोत्था जाम्बवास्थिनिभाऽशुभा॥ १३ ॥ और रक्तपित्तसे उपजनेवाली और जामनकी गुठलीके सदृश और शीव उत्पन्न हुई फुनसी कुंभिका है ॥ १३ ॥
अलजी मेहवाद्विद्यात्और प्रमेहमें कही अलजी फुनीकी तरहभी अलजीफुनसीको जानो ॥
उत्तमां रक्तपित्तजाम् ॥ पिटिका माषमुद्गाभांऔर रक्तपित्तसे उपजी उडद और मूंगके सदृश फुनसी उत्तमाहै ॥
पिटिका पिटिकाचिता ॥ १४॥ कर्णिका पुष्करस्येव ज्ञेया पुष्करिकेति सा ॥ और फुनसियोंसे व्याप्तहुई फुनसी पिटिकाहै ॥ १४ ॥ कमलकी कर्णिकाके समाम आकारवाली पुष्कारिका जाननीं ॥
पाणिभ्यां भृशसंव्यूढे संव्यूढपिटिका भवेत् ॥१५॥ और दोनों हाथोंसे अत्यंत घृष्ट हुयेमें संव्यूढपिटिका होतीहै ॥ १५ ॥
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