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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९४५) ऊर्ध्वाधःशोधनं पेयमपच्यां साधितं धृतम् ॥ दन्तीद्रवन्तीत्रिवृताजालिनीदेवदालिभिः॥ १३ ॥ शीलयेत्कफमेदोनं धूमगण्डूषनावनम् ॥ शिरयाऽपहरेद्रक्तं पिबेन्मूत्रेण ताीजम् ॥ १४॥ और अपचीरोगमें वमन और जुलाब करावे, और जमालगोटेकी जड द्रवंती निशोत कडुवीतोरई देवताडसे सिद्धकर घृत पावै ॥ १३ ॥ और कफगेदको नष्टकरनेवाली औषध देवे और गिडोवोंका धूम देवे और फस्त खुलावे और गोमूत्रसे रसोतको पीवे ।। १४ ॥
ग्रन्थीनपक्कानालिम्पन्नाकुलीपटुनागरैः॥
स्विन्नाँल्लवणपोटल्या कठिनाननुमर्दयेत् ॥१५॥ और नहीं पी ग्रंथिपर नकुलकन्द भनियारीनमक झूठका लेप करे, और नमककी पोटलीसे सेके और कठिनको मर्दनकरे ॥ १५ ॥
शमीमूलकशिग्रूणां बीजैः सयवर्षपैः॥
लेपः पिष्टोऽम्लतकेण ग्रन्थिगण्डविलापनः॥१६॥ और जांटी मूली सहोजना इन्होंके बीज और जव सिरसोंको खट्टी छाहसे पीसकर लेपकरे तो ग्रंथि और गंड नष्टुहो ॥ १६ ॥
पाकोन्मुखान्नुतास्रस्य पित्तश्लेष्महरैर्जयेत् ॥
अपक्कानेव चोद्धत्य क्षाराग्निभ्यामुपाचरेत् ॥१७॥ और पकीहुई ग्रंथिको और झिरनेवालकिा पित्त कफको हरनेवाली चीजोंसे जीते, और नहींपकी ग्रंथिको उखाडके क्षार और आग्निसे दूरकरे ॥ १७ ॥
क्षपणानि निम्बपत्राणि क्लिन्नैर्भल्लातकैः सह ॥ शरावसम्पुटे दग्ध्वा सार्धं सिद्धार्थकैः समैः॥ १८॥ एतच्छागाम्बुना पिष्टं गण्डमालाप्रलेपनम् ॥ काकादनीलाङ्गलिकानहिकोत्तुण्डिकीफलैः ॥१९॥ जीमूतबीजकर्कोटीविशालाकृतवेधनैः ॥ पाठान्वितैः पलार्द्धाशैक्षिकर्षयुतैः पचेत् ॥ २०॥ प्रस्थं करञ्जतैलस्य निर्गुण्डीस्वरसाढकैः॥अनेन माला गण्डाना चिरजापूयवाहिनी॥२१॥सिध्यत्यसाध्यकल्पापि पानाभ्यञ्जननावनैः॥
और नींबके पत्ते बारीककूटके गीले भिलावोंसहित आधी सिरसों भिजो संपुटमें देकर भस्मकरे ॥ १८॥ पश्चात् इसको बकरेके मूत्रमे पीस लेपकरे तो गंडमाला नष्ट होय और काकादनी कल
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