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(९४४)
अष्टाङ्गहृदयेकार्य मेदोभवेऽप्येतत्तप्तैः फालादिभिश्च तम् ॥५॥ प्रमृद्यात्तिलदिग्धेन च्छन्नं द्विगुणवाससा ॥
शस्त्रेण पाटयित्वा वा दहेन्मदसि सूद्धते ॥ ६॥ और मेदसे उपजी ग्रंथिमें तपेहुए लोहेसे दागे ॥ ५ ॥ पीछे दुहरेवम्बसे ढक के तिलकी पिट्ठी मले और शस्त्रसे फाडके मेदको अच्छीतरह दागदे ॥ ६ ॥
शिराग्रन्थौ नवे पेयं तैलं साहचरं तथा ॥
उपनाहोऽनिलहरैर्बस्तिकमशिराव्यधः॥७॥ और नाडीकी नवीन ग्रंथिमें साहचर तेल पीवे और वातको हरनेवाली क्रिया करे उपनाह पसीना करे और बस्तिकर्म करे और नाडी वीधे ॥ ७ ॥
___ अर्बुदे ग्रन्थिवत्कुर्य्याद्यथास्वं सुतरां हितम् ॥ और अर्बुदरोगमें निरंतर ग्रंथिवाली क्रिया हितकारी है ।
श्लीपदेऽनिलजे विध्येस्निग्धस्विन्नोपनाहिते ॥८॥ शिरामुपरि गुल्फस्य द्वयंगुले पाययेच तम् ॥ मासमेरण्डजं तैलं गोमूत्रेण समन्वितम् ॥९॥ जीर्णे जीर्णान्नमश्नीयाच्छुण्ठीशृतपयोऽन्वितम् ॥
त्रैवृतं वा पिवेदेवमशान्तावग्निना दहेत् ॥ १० ॥ गुल्फस्याधः शिरामोक्षः
और वातके श्लीपदमें तिसको बांधे और उपनाहसंज्ञक पसीना करावे ॥ ८ ॥ और टंकनासे दो अंगुल ऊपर नाडीको वींधे और तिसको गोमूत्रके साथ अरंडका तेल एक महीना प्यावे ॥९॥
और जब तेल जीर्ण होवे तब जीर्ण अन्न भोजनकरे और सूंठ और दूधका काथ बना पीवे और निशोत पीवे और अग्निसे शांतकरे ॥ १० ॥ और टकनेके नीचे फस्त खुलावे ॥
पैत्ते सर्वं च पित्तजित् ॥ और पित्तज श्लीपदमें संपूर्ण पित्तको जीते ॥ शिरामंगुष्ठके विद्धा कफजे शीलयेद्यवान् ॥ ११॥ सक्षौद्राणि कषायाणि वर्द्धमानास्तथाभयाः॥ लिम्पेत्सर्षपवार्ताकीमूलाभ्यां धान्ययाथवा ॥१२॥ और कफके श्लीपदमें अंगुठेकी नाडीको वींधके जवकी पिट्ठीका लेपकरे।।११।। और शहद मिला काथ पीवे,अथवा वर्द्धमान हरडै लेवे, और शिरसों और वार्ताकीजडसे और धनियांसे लेप करे॥१२॥
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