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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । इस सर्वाकृतिको त्यागदेवे ॥ अन्तःस्थितं शल्यमनाहृतं तु करोति नाडी वहते च सास्य ॥ फेनानुविद्धं तनुमल्पमुष्णं सास्त्रं च पूयं सरुजं च नित्यम् ॥३१॥
और भीतर जिस नाडीमें पीडाहो तिसको त्यागदेवे, और झागवाली सूक्ष्म गरम राध रोगवालीको त्यागदेवै ॥ ३१ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीक या
मुत्तरस्थाने एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ।।
अथ त्रिंशोध्यायः। अथातो ग्रन्थ्यर्बुदलीपदापचीनाडीप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर ग्रंथिअर्बुदश्लीपदअपचनिाडीप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। __ग्रन्थिष्वामेषु कर्त्तव्या यथास्वं शोफवक्रिया॥ कञ्ची ग्रंथिमें यथार्थ सोजावाली क्रिया करनी उचितहै ।
बृहतीचित्रकव्याघ्रीकणासिद्धेन सर्पिषा ॥१॥
स्नेहयेच्छुद्धिकामं च तीक्ष्णैः शुद्धस्य लेपनम् ॥ और बडीकटेहली चोता कटेहली पीपल इन्होंसे घृतको सिद्धकर ॥ १ ॥ तिस घृतसे आमग्रंथिको चुपडे और तीक्ष्णलेप करै ॥
· संस्वेद्य बहुशो ग्रन्थि विमृद्गीयात्पुनःपुनः॥२॥ . पश्चात् ग्रंथिको पसीना दिवाके बहुत देर बारबार मसले ॥२॥
एष वाते विशेषेण क्रमः पित्तास्रजे पुनः॥
जलौकसो हिमं सर्वं कफजे वातिको विधिः॥३॥ यह वातविषे क्रम कहाहै और पित्तरुधिरमें विशेषसे क्रम कहाहै तिसमें जोंक लगानी और ठंढा इलाज करना और कफकी ग्रंथिमें वातकी विधि करनी ॥ ३ ॥
तथाप्यपकं छित्त्वैनं स्थिते रक्तेऽग्निना दहेत् ।।
साध्वशेषं सशेषो हि पुनराप्यायते ध्रुवम् ॥ ४ ॥ और नहीं पकी ग्रंथिको काटके रुधिर ठहरे तब अग्निसे दागदे और तिस संपूर्ण प्रथिको निश्चय दूरकरे ॥ ४ ॥ ____ मांसवणोद्भवों ग्रन्थी पाटयेदेवमेव च ॥ और मांस और व्रणसे उपजी ग्रंथिको ऐसेही फाडे ॥
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